बंधन का कारण है आसक्ति - आचार्य महाश्रमण

आचार्य प्रवर ने दी ज्ञानरूप आचरण करने की प्रेरणा

सुयगड़ो आगम के बारे में बताया


भीलवाड़ा (तेरापंथ नगर) :-
तीर्थंकर के प्रतिनिधि संत शिरोमणि परम पूज्य आचार्य श्री महाश्रमण जी का भीलवाड़ा में पावन प्रवास तीव्रता से उत्तरार्ध की ओर बढ़ रहा है। आचार्य प्रवर के सानिध्य में भीलवाड़ा वासियों के साथ-साथ देशभर से भी पहुंचे श्रद्धालु तेरापंथ नगर में धर्माराधना का लाभ प्राप्त कर रहे है।

अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्य श्री महाश्रमण ने सुयगड़ो आगम के बारे में फरमाते हुए कहा कि इस आगम में भगवान महावीर की स्तुति की गई है। इसके प्रारंभ के श्लोक में जंबु स्वामी एवं सुधर्मा स्वामी के संवाद से ये उपदेश निर्देश दिया गया है कि पहले बोधि को प्राप्त करो फिर बंधन को जानो और तोड़ो। इन तीनों बातों की परिक्रमा, यात्रा या मनन करे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि पहले ज्ञान को प्राप्त करे फिर जाने-समझे। जैन शासन में पंचाचार की आराधना में आचार प्रथम धर्म है पर अगर ज्ञान और आचार अलग-अलग हो तो इस रूप में ज्ञान प्रथम धर्म है क्योंकि ज्ञान के बिना आचार का निर्धारण मुश्किल है। ज्ञानी मनुष्य ही आचार और अनाचार का विवेक कर सकता है। ज्ञान जितना स्पष्ट, निर्मल होगा उतना ही आचरण अच्छे से हो सकता है।

उन्होंने बताया कि - भगवान महावीर ने परिग्रह, संग्रह की प्रवृति और हिंसा को बंधन कहा है। ममत्व, आसक्ति और अवांछनीय रूप से स्नेह को बंधन का हेतु माना गया है। इन सब बंधनों को तोड़ने का उपाय है धन व परिवार के प्रति अत्राण भाव की अनुप्रेक्षा करना। आदमी यह सोचे कि जीवन मृत्यु की ओर जा रहा है। हमारा पुरुषार्थ अनासक्ति की दिशा में होना चाहिए। व्यवहार के धरातल पर सामान्य व्यक्ति दुख निवृति और सुख उपलब्धि हेतु प्रवृति करता है।अध्यात्म जगत में साधक मोक्ष की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करता है क्योंकि बंधन दुख का और मोक्ष सुख का हेतु है। मोक्ष प्राप्ति की दिशा में साधना की जाएं यह अपेक्षा है।

कार्यक्रम में बालमुनि मार्दव कुमार ने पूज्य प्रवर से नौ की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। इस अवसर पर मुमुक्ष दीप्ति ने अपने विचार रखे।




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