13 करोड़ की सम्पत्ति से अधिक मूल्यवान है साधुत्व के तेरह नियम- आचार्य महाश्रमण

 महातपस्वी महाश्रमण ने नवदीक्षित साध्वी को प्रदान की बड़ी दीक्षा

साधुत्व के समस्त नियमों को प्रदान कर छेदोपस्थापनीय चारित्र में किया स्थापित


भीलवाड़ा (तेरापंथ नगर) :- 
सात दिन पूर्व दीक्षित हुई साध्वी रोहिणीप्रभाजी को जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, महातपस्वी, शान्तिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने बड़ी दीक्षा प्रदान की। आचार्यश्री ने उन्हें साधुत्व के समस्त नियमों का स्वीकरण करवाते हुए सामायिक चारित्र से छेदोपस्थापनीय चारित्र में स्थापित कर साधुत्व के नियमों के पालन की पावन प्रेरणा प्रदान की। आचार्यश्री ने पांच महाव्रत, पांच समितियां व तीन गुप्तियां इन साधु के तेरह नियमों को 13 करोड़ की सम्पत्ति से भी अधिक मूल्यवान बताते हुए पूर्ण जागरूकता के साथ नियमों का पालन करने और उसे बढ़ाते रहने को उत्प्रेरित किया। 

चतुर्दशी तिथि होने के कारण तेरापंथ धर्मसंघ की परंपरा के अनुसार गुरुकुलवासी समस्त चारित्रात्माएं भी पूज्य सन्निधि में हाजरी वाचन के उपस्थित थे। उनकी उपस्थिति ऐसा नयनाभिराम दृश्य उत्पन्न कर रही थी मानों महासूर्य महाश्रमण से निकलने वाली श्वेत रश्मियां महाश्रमण सभागार में फैल रही हों। आचार्यश्री ने समुपस्थित चारित्रात्माओं को हाजरी वाचन के साथ-साथ उन्हें अपनी मर्यादा, नियमों के प्रति और अधिक जागरूक रहने और उनका अनुपालन कर अपने साधुत्व को उत्कृष्ता तक पहुंचाने को अभिप्रेरित किया। 


आचार्यश्री के महामंत्रोच्चार से कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ। साध्वीवर्या साध्वी सम्बुद्धयशाजी का उद्बोधन हुआ। तत्पश्चात् सात दिन पूर्व आचार्यश्री के श्रीमुख से दीक्षा ग्रहण कर गृहस्थावस्था से साध्वी बनी नवदीक्षित साध्वी रोहिणीप्रभाजी ने अपने आराध्य के समक्ष अपनी श्रद्धासिक्त अभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने सूयगडो आगमाधारित अपने पावन प्रवचन में साधुओं के चलने व बैठने आदि के नियमों का वर्णन करते हुए कहा कि साधु के चलने में पूर्ण जागरूकता रहे। किसी भी प्रकार के जीवों की हिंसा न होने पाए। साधु को सरल होना चाहिए। स्वाध्याय के माध्यम से निरंतर अपने ज्ञान के भंडार को भरने का प्रयास करना चाहिए। साधुत्व के तेरह नियम मानों 13 करोड़ की सम्पत्ति से भी अधिक मूल्यवान हैं। इनका पूर्ण जागरूकता के साथ रक्षा करना और इसमें निरंतर वृद्धि करने का प्रयास होना चाहिए। 

उन्होंने कहा कि स्वाध्याय तो मानों साधु की एक अच्छी खुराक के समान है। अशक्त व सेवा सापेक्ष साधुओं की सेवा करने के लिए सदैव तत्पर होना चाहिए। आचार्यश्री ने हाजरी पत्र का वाचन करते हुए साधु को एक आचार्य की आज्ञा में रहना आदि संघीय नियमों का वर्णन करते हुए स्वाध्याय के माध्यम से स्वयं का विकास करने की प्रेरणा दी। नवदीक्षित साध्वी रोहिणीप्रभाजी ने लेखपत्र का उच्चारण किया तो आचार्यश्री ने उन्हें कल्याणक भी प्रदान किए।उनकी आज्ञानुसार मुनि धर्मरुचिजी ने नवदीक्षित साध्वी के प्रति साधु समुदाय की ओर से मंगलभावना व्यक्त की। समस्त चारित्रात्माओं ने अपने स्थान पर खड़े होकर लेखपत्र का उच्चारण करते हुए अपने संकल्पों को दोहराया। 


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