मौलिक अधिकार नहीं है आरक्षण

आरक्षण को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है:-
राकेश दुबे
सर्वोच्च न्यायालय ने तो कह दिया कि आरक्षण किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार नहीं। अब इस मसले पर सभी राजनीतिक दलों के कान खड़े हो गए। बहस छिड़ गई। आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने अपनी तरफ से स्पष्ट कर दिया कि वह आरक्षण विरोधी नहीं, बल्कि आरक्षण का समर्थन करती है। पार्टी के मुखिया जगत प्रकाश (जेपी) नड्डा ने कहा – समाज में कुछ लोग आरक्षण को लेकर भ्रम फैलाने का काम कर रहे हैं। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा आरक्षण के प्रति पूरी तरह कटिबद्ध है। सामाजिक न्याय के प्रति हमारी वचनबद्धता अटूट है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार – बार इस संकल्प को दोहराया है। सामाजिक समरसता और सभी को समान अवसर हमारी प्राथमिकता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि भाजपा आरक्षण व्यवस्था के साथ है।

सामाजिक समरसता और समान अवसर क्या हमारे देश में लोगों के पास है? उत्तर होगा शायद नहीं। सामाजिक समरसता और समान अवसर की बात करने वाली हमारी राजनीतिक पार्टियां आखिर कितने वर्षों तक इस देश की जनता के साथ छल करती रहेंगी? देश की जनता को जाति और धर्म के नाम पर कब तक बांटा और ठगा जाता रहेगा? इस समस्या का कोई समाधान या हल है भी या नहीं? क्या कभी इस मसले का हल निकल पाएगा? राजनीति की बिसात पर देश के लोग पांसों की भांति एक – दूसरे के साथ कब तक शह और मात का खेल खेलते रहेंगे? राजनीतिक पार्टियों के लिए आरक्षण एक अंतहीन प्रक्रिया है। राजनीतिक पार्टियां अपने फायदे के लिए आरक्षण को कभी खत्म नहीं होने देंगी। इस देश की जनता को इसके लिए गंभीरता से सोचना होगा और जाति - धर्म के भेद को भूलाकर आगे आना होगा, तब कहीं जाकर शायद इस देश से आरक्षण को खत्म किया जा सकेगा।

सामाजिक समरसता और समानता के लिए इस देश में आरक्षण केवल दस वर्षों के लिए लाया गया था। 26 जनवरी, 1950 को लागू आरक्षण दस साल बाद इस देश से खत्म हो जाना चाहिए था। परंतु 70 साल हो जाने के बाद भी आरक्षण हमारे देश में लागू है। भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद और प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. बीआर अंबेडकर ने भी शायद यह नहीं सोचा होगा कि जिस आरक्षण को वे मात्र 10 वर्षों के लिए लागू कर रहे हैं, उसे देश में 70 साल बाद भी यथावत रखा जाएगा। चलिए अब बात करते हैं कि आरक्षण कहां – कहां लागू है, इससे कौन – कौन लोग प्रभावित होते हैं और कितने लोगों को इसका फायदा मिल रहा है? अमूमन नामांकन, चयन, पदोन्नति, निर्वाचन, आवास और अन्य सारी सुविधाओं पर आरक्षण लागू है। देश की कुल आबादी के 15 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 9.5 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति और 36 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग आरक्षण के दायरे में आता है। स्कूल, कॉलेज के नामांकन में, सरकारी नौकरियों के चयन में, सरकारी नौकरियों की पदोन्नति में, लोकसभा और विधानसभा चुनावों में, सरकारी आवासों के आबंटन में आरक्षण लागू है। जबकि मेरिट के आधार पर ही एडमीशन, सेलेक्शन, प्रमोशन, इलेक्शन और एकोमोडेशन की बात होनी चाहिए। क्योंकि क्रीमी लेयर यानी मलाईदार तबके के अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ा वर्ग के लोगों को ही आरक्षण का फायदा मिल रहा है। वहीं जरूरतमंद और गरीब लोग आरक्षण के लाभ से कोसों दूर हैं।
राजस्थान में अनुसूचित जाति और जनजाति की 11 संस्थाओं ने देश से आरक्षण को खत्म करने की वकालत करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की है। उनका कहना है कि इस देश से आरक्षण को तत्काल खत्म कर देना चाहिए। क्योंकि इसका फायदा केवल और केवल क्रीमी लेयर अर्थात मलाईदार तबके के लोग उठा रहे हैं। 95 प्रतिशत लोगों को इसका लाभ नहीं मिल पाता। दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे देश की सभी राजनीतिक पार्टियां आरक्षण की पक्षधर हैं। इससे वे अपना उल्लू सीधा कर रही हैं। अन्यथा रामविलास पासवान, रामदास आठवले, सुशीलकुमार शिंदे, मीरा कुमार, मायावती आदि इत्यादि मलाईदार तबके के लोगों को आरक्षण की क्या आवश्यकता? इस तरह के लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। एक तरह से देखा जाए तो यही वे लोग हैं जो आरक्षण का पूरा का पूरा फायदा उठा रहे हैं, इनके परिवार की 3-3 पीढ़ियां इस आरक्षण का लाभ उठा चुकी हैं। जबकि आरक्षण के दायरे में आने वाली गरीब जनता परेशान है और आरक्षण के नाम पर केवल पिस रही है। इसके चलते ज्ञान और विज्ञान में शिक्षित पीढ़ी अपने देश में नहीं बल्कि विदेशों में जाकर काम करना पसंद करने लगी है।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के सबसे पवित्र स्थल संसद की बात करते हैं। लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव में आरक्षण लागू है। जहां लोकसभा की 543 में 131 सीटें आरक्षित हैं। वहीं उच्च सदन (अपर हाउस) यानी राज्यसभा में आरक्षण लागू नहीं है। आखिर ऐसा क्यों? निचले सदन (लोअर हाउस) में आरक्षण और उच्च सदन में कोई आरक्षण नहीं। उसे सामान्य श्रेणी में रखा गया। देश की 4120 विधानसभा सीटों में से 1165 सीटें आरक्षित हैं। देश में लॉकडाउन से पहले सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था आरक्षण देना बंधनकारी नहीं है। मगर सर्वोच्च न्यायालय की इस बात पर राजनीतिक पार्टियां या सरकार गौर करे तो न। इस तरह देखा जाए तो मात्र 24 प्रतिशत मतदाताओं को खुश करने के लिए देश के 76 प्रतिशत मतदाताओं के साथ अन्याय नहीं हो रहा? देश की 76 प्रतिशत जनता आखिर इसका विरोध क्यों नहीं कर रही है?

भारत रत्न अटल बिहारी विश्वविद्यालय के चांसलर प्रोफेसर आरडी झा पिछले 25 वर्षों से बंबई हाईकोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक आरक्षण के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। आरक्षण के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में उनकी याचिका लंबित है। आरक्षण किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार नहीं, सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का स्वागत करते हुए वे कहते हैं देश से आरक्षण पूरी तरह खत्म कर दिया जाए, क्योंकि 70 वर्ष बाद भी सही मायने में आरक्षण का कोई लाभ जरूरतमंद और गरीब तबके के लोगों को नहीं मिल पाया है। आरक्षण का फायदा केवल मलाईदार तबका ही ले रहा है, जबकि उसे आरक्षण की कोई आवश्यकता ही नहीं। इसलिए स्कूल – कॉलेजों में एडमीशन से लेकर चयन प्रक्रिया, पदोन्नति और इलेक्शन आदि से आरक्षण को तत्काल प्रभाव से खत्म किया जाए। यह सभी अब मेरिट के आधार पर होना चाहिए, ताकि जरूरतमंद और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को इसका फायदा मिल सके। प्रोफेसर झा चाहते हैं कि देश के गरीब और जरूरतमंद लोगों को सरकार की ओर से भरपूर आर्थिक मदद दी जाए, ताकि सही मायने में वह मजबूत हों और सामाजिक समरसता और समानता का अवसर प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ सकें। मुंबई के एलिफिंस्टन कॉलेज में फिजिक्स के प्रोफेसर रहे डॉ. झा का कहना है कि इसी कॉलेज के एक विद्यार्थी बीआर अंबेडकर ने देश में आरक्षण लागू किया था, अब इसी देश का प्रोफेसर इसे खत्म करवाने की कोशिश कर रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार एवं मीडिया विशेषज्ञ हैं)

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