हमारे बनाम उनके पर विचार करने से बचने की जरूरत है" - संजीत नार्वेकर

17वें मुंबई अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव

में प्रतिष्ठित प्रोड्यूसर्स के विचार


नई दिल्ली :-
पिछले कई दशकों में लोगों ने फिल्म निर्माण, विशेष रूप से वृत्तचित्र (डॉक्यूमेंट्री) फिल्म निर्माण की प्रक्रिया में किए गए बहुत सारे बदलावों या, बल्कि प्रयोगों का अनुभव किया है। प्रतिष्ठित 17वें मुंबई अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (एमआईएफएफ) के तीसरे दिन इंडियन डॉक्यूमेंट्री प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन (आईडीपीए) ने फिल्म क्षेत्र की प्रतिष्ठित हस्तियों के साथ एक और ज्ञानवर्धक व प्रेरक ओपन वार्ता का आयोजन किया। यह वार्ता डॉक्यूमेंट्री की फिल्म यात्रा और विकास के 75 वर्ष' और ‘कैसे सीएसआर वित्तीय पोषण डॉक्यूमेंट्री के सामाजिक परिदृश्य में योगदान करती है' विषयवस्तु पर आयोजित की गई।

इस सत्र के दौरान वी शांताराम लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के विजेता, फिल्म निर्माता और शिक्षाविद संजीत नार्वेकर ने स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं के बारे में लोगों के बीच प्रचलित धारणा की चर्चा की। उन्होंने आगे फली बिलिमोरिया, क्लेमेंट बैप्टिस्ट, सुखदेव व बी.डी. गर्ग जैसे प्रतिष्ठित फिल्म निर्माताओं का उल्लेख किया, जिन्होंने बिना किसी लांछन के स्वतंत्र रूप से काम किया और फिल्म डिवीजन व कारपोरेट प्रायोजकों, दोनों के लिए फिल्में बनाईं। संजीत नार्वेकर ने पूरे देश में सिनेमा क्षेत्र के मार्गदर्शक जैसे कि सत्यजीत रे, जी अरविंदन, अडूर गोपालकृष्णन और श्याम बेनेगल का उल्लेख किया, जिन्होंने कुछ काफी प्रशंसा प्राप्त करने वाली फिल्मो का निर्माण किया। उन्होंने आगे कहा, “शुरुआत में ही लोगों को इस बारे में स्पष्ट होने की जरूरत है कि भारतीय डाक्यूमेंट्री को मजबूती देने और उससे आगे की सोच रखने की दिशा में प्रयास कर रहे हैं और पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और कई अन्य देशों के दक्षिण-पूर्व एशियाई डॉक्यूमेंट्री को देखना पसंद करते हैं। इसे देखते हुए हमारे बनाम उनके बारे में सोचने से बचने की जरूरत है।”एमआईएफएफ में वी शांताराम लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के विजेता संजीत नार्वेकर

वहीं, फिल्म सोसाइटी के कार्यकर्ता प्रेमेंद्र मजूमदार ने बहुत ही कम उम्र से डॉक्यूमेंट्री देखने के अपने अनुभव को दर्शकों के साथ साझा किया। उन्होंने आगे बताया कि व्यावसायिक मल्टीप्लेक्सों के आने साथ विज्ञापन फिल्मों ने डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की जगह ले ली है और अब पहले की तरह फिल्म स्क्रीनिंग से पहले वृत्तचित्र दिखाना अनिवार्य नहीं है। इसे देखते हुए भारत में वृत्तचित्रों का वितरण संदिग्ध है। प्रेमेंद्र मजूमदार ने उल्लेख किया कि 1995 के बाद पहली बार राज्य प्रायोजित फिल्म समारोह - पश्चिम बंगाल में भारत अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (जिसे अब कोलकाता अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के रूप में जाना जाता है) में डॉक्यूमेंट्री दिखाने की कोई बात नहीं की गई थी। आखिरकार, 2002 में सरकार को डॉक्यूमेंट्री और लघु कहानियों (शॉर्ट फिल्म) को दिखाने के लिए समानांतर उत्सव चलाने के बारे में एक प्रस्ताव दिया गया, जिसे अंततः एक जबरदस्त सफलता प्राप्त हुई। उन्होंने आगे कहा कि पहले दर्शकों के बीच कोई डॉक्यूमेंट्री फिल्म देखने की संस्कृति नहीं थी, फिल्म समाज में भी लोगों की दिलचस्पी केवल फीचर-लंबाई वाली फिक्शन (गल्प) फिल्में देखने के लिए थी। उन्होंने कहा, “हमने हमेशा डॉक्यूमेंट्री फिल्मों को देखने और उनकी सराहना करने की फिल्म संस्कृति का प्रचार करने की कोशिश की है। पूरे देश में लगभग 350 फिल्म सोसायटी सक्रिय रूप से काम कर रही हैं और लगभग 100 कैंपस फिल्म सोसाइटी हैं।”

सीएसआर सलाहकार पंकज जायसवाल ने चर्चा की विषयवस्तु के अनुरूप बात की। उन्होंने कहा कि डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की व्यावसायिक व्यवहार्यता से समझौता किया गया है, लेकिन सीएसआर की स्थापना के साथ सरकार इसके निर्माताओं को एक अवसर प्रदान कर रही है, जहां कारपोरेट जगत को इनके साथ कुछ प्रावधान करके अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाना है। उन्होंने आगे कहा कि पहले कंपनी पैसा खर्च करने में हिचकिचाती थी, लेकिन जनवरी 2021 से सरकार ने सीएसआर के लिए 2 फीसदी खर्च करना अनिवार्य कर दिया है और अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो इसकी जवाबदेही अधिकारियों की होगी। वे सीएसआर वित्तीय पोषण में शामिल किए गए अनुसूची 7 का उल्लेख कर रहे थे। उन्होंने महिला सशक्तिकरण, लैंगिक समानता या शिक्षा जैसी जागरूकता उत्पन्न करने वाली विषयवस्तुओं पर फिल्म बनाने की बात कही, जिसे कारपोरेट जगत से धनराशि प्राप्त करने में सहायता मिलती है।

इस चर्चा का संचालन फिल्म निर्माता और शिक्षाविद संतोष पाठारे ने किया।

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