बढ़ते विकास के साथ विनाश की बढ़ती दर को पहचानें

 🌳World_Environment_ Day-Think Globally Act Locally🌳

ज्योति मुणोत 


आज पर्यावरण दिवस पर मेरे गांव के लोगों और उन लोगो से भी बात करने का दिल किया, जिन्होंने पिछले 2 वर्षों में मुझे पर्यावरण के कार्यो में सहयोग किया व प्रेरित किया। हाल-चाल पूछने के बाद जब मौसम की बात आई तो लगा कि तापमान सिर्फ धरती का ही नही बल्कि लोगों के दिमाग का भी बढ़ गया है। हालांकि *अच्छी बात यह है कि बढ़ते तापमान को नियंत्रित करने के विषय पर उनकी जागरूकता बढ़ रही है और वे अपने आस-पास के लोगों को भी अपने मुहिम में जोड़ रहे हैं। संक्षिप्त में कहूँ तो 'अब जब दिनों-दिन गर्मी बढ़ने के साथ बिजली का भी संकट आया तो जल-जंगल-जमीन याद आ ही गए। यूँ कहे कि रिकॉर्ड तोड़ गर्मी और बिजली जाने के बाद आम-नीम के वृक्षों ने ही प्राण बचा रखें हैं।'

भौगोलिक लिहाज से भारत के सबसे बड़े राज्य राजस्थान में हमेशा से पानी का संकट रहा है किंतु वर्तमान में पीने के पानी की स्थिति ऐसी है कि 4-5 दिनों में पानी आ रहा है। जहां पानी उपलब्ध है, वहां से ट्रेनों व टैंकर द्वारा पानी भेजा जा रहा है। केमिकल फैक्ट्रियों व अन्य कारणों से पानी के अंधाधुंध दोहन, पनघट की उपेक्षा जैसी जल संरक्षण की परंपराओं को नज़रअंदाज करने से भी ऐसे हालात बन गए हैं। पहले रेगिस्तान में तालाब, कुंआ, बावड़ी, पोखर, पनघट, प्याऊ आदि के निर्माण को जनजीवन के मंगल का केंद्र माना जाता था। अब वो या तो वीरान पड़ी हैं या फिर अपने अस्तित्व के विलीन होने की प्रतीक्षा में है। 

वर्तमान में लगातार विकास कार्यों को बढ़ावा दिया जा रहा है, जो अच्छी बात है किंतु विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति के साथ छेड़छाड़ हमें विनाश के रास्ते पर ला रही है, जिसके परिणाम साक्षात हैं। आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करके उपलब्ध पानी को आसानी से हम तक पहुंचाना कुछ वर्षों के लिए सुखद आभास अवश्य हैं परंतु कभी सोचा है कि इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? हम सभी जानते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है। धीरे-धीरे हमारी नदियां सूखकर, विलुप्त होने की कगार पर है। विकास के नाम पर जंगलों की कटाई व आगजनी विनाश की ओर इशारा कर रहे हैं। मनुष्य ही नही पशु-पक्षी भी जलवायु परिवर्तन का असर झेलने को मजबूर है। बहुत से शोध संस्थानों ने आशंका जताई है कि आने वाले समय में जल संकट बढ़ेगा। यह दुखद है कि प्रकृति को नुकसान पहुंचाने का सर्वाधिक कार्य साक्षर लोग ही कर रहे हैं। मेरी बात से सहमत ना हो तो अपने आस-पड़ोस या स्वयं के घर मे भी, देखकर तसल्ली कर लीजिएगा। आप समझ जाएंगे कि कहीं न कहीं हम भी प्रकृति के दोहन में जिम्मेदार हैं। हमने विकास तो किया किंतु विनाश के मूल्य में! 

 आइये प्रण लें कि हम प्रकृति का संरक्षण और संवर्द्धन करेंगे ताकि हमारी प्राकृतिक संपदा बची रहे क्योंकि जल होगा, तभी जमीन और जंगल बचेंगे और हमारा जीवन सुखदायी होगा

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