जिनशासन की महान विभूति श्री आत्मारामजी म.सा.
स्वर्गारोहण तिथि पर विशेष
शासनपति भगवान श्री महावीर की परमोज्जवल पाट परम्परा के 73वे पट्टधर न्यायम्भोनिधि जंगम युगप्रधान परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्री विजयानन्द सूरीश्वर जी म.सा. (श्री आत्माराम जी म.सा.) का संक्षिप्त जीवन परिचय।
पंजाब की गौरवमयी महकदार माटी, जिसमें पुरुषार्थ और पराक्रम के परमाणु भरे है, जहाँ के पंचनदीय पानी में भक्ति, शक्ति, समर्पण, साहस और सेवा की लहरें मचल रही है, उस धरती पर जन्म लेने वालों का चमकदार, गौरवपूर्ण, शौर्यशाली सुगठित शरीर, शक्तिशाली भुजाएँ प्रभावशाली चेहरा शुद्ध आर्यवंशी होने की गवाही देता है। इसी वीर पराक्रमी भूमि पर एक युगद्रष्टा, सत्याशोधक ज्योतिधर साधू पुरुष ने जन्म लिया।
फिरोजपुर के जीरा तहसील में एक छोटा सा सुंदर-सुखी-समृद्ध गाँव है, लहरा। वहां के निवासी क्षत्रियवंशी गणेशचन्द्र जी की धर्मपत्नी माता रूपा देवी जी की कुक्षी से एक तेज़:स्फूलिंग ने जन्म लिया, जिसके प्रकाश से एक दिन सम्पूर्ण आर्यावर्त आलोकित हो उठा। अमेरिका, यूरोप तक उसकी दिव्य ज्ञान किरणों ने सत्य का आलोक फैला दिया था। वि. सं. 1894 चेत्र सुदी एकम नवरात्र का प्रथम शुभ दिन। माता रूपा देवी ने जिस दिव्य नक्षत्र को जन्म दिया, उसे आगे चलकर 'आत्माराम' नाम से पहचाना गया।
जैन परिवार के संस्कारो में रहने और साधू-सन्तों के निकट संपर्क से क्षत्रियवंशी आत्माराम नें धीरे-धीरे करुणा, अहिंसा, सयंम और प्रभु भक्ति के संस्कार जागृत हुए। सत्संग से जीवन जा रूपांतरण होता है। यह बात चार वर्ष के अल्प कालीन सत्संग से ही सिद्ध हो गई। बालक आत्माराम 16 वर्ष का समझ दार हुआ तो उसने जैन दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की।
मलेरकोटला में उन दिनों स्थानकवासी जैन सन्त जीवन राम जी म. पधारे थे। बालक आत्माराम की वैराग्य भावना देखकर और सन्तो की इच्छा जानकर जोधामल जी ने परिवारजनों से पुछ कर आत्माराम को दीक्षा की आज्ञा दे दी। वि. सं. 1910 मार्गशीर्ष सुदि पंचमी के दिन धूम-धाम से बालक आत्माराम जैन मुनि आत्माराम बन गए।
मुनि आत्माराम जी स्वभाव से ही ज्ञानपिपासु थे। सत्यशोधक वृति थी। सयंम-तप-चारित्र और ज्ञान इस चुर्तमुखी साधना में आपने अपने आप को संग्लन कर दिया। गुरूजी ने संस्कृत-प्राकृत भाषा की व्याकरण पढाई। मुनि आत्माराम जी की ज्ञानराधना में और भी तीव्रता आ गई। भाषा ज्ञान की कुंजी पाकर आगामज्ञान की मंजूषा खोलने में दत्तचित्त हो गये। जैसे जैसे आगमों का स्वाध्याय, चिंतन-मनन करते, उन्हें ज्ञान के बहुमूल्य मणि प्राप्त होते गये। 'ज्ञानं तृतीय नेत्रम्' - ज्ञान मनुष्य का का तीसरा नेत्र है। 'आगम चक्खु साहू' - साधू का तीसरा चक्षु है आगम। आगम ज्ञान से मुनि आत्माराम जी के अन्त चक्षु उदघाटित हो गये। धर्म शास्त्र और जिनवाणी पर उन्हें अगाध श्रद्धा तो थी ही, साथ ही वे सत्य शोधक वृति के थे।
धर्म क्रांति का शंखनाद
मुनि आत्माराम जी ने धर्म शास्त्रों का गहरा अध्ययन-अनुशीलन किया तो उन्हें लगा- " मैं जिस मार्ग पर चल रहा हूँ वह गलत तो नहीं है, परन्तु अपूर्ण, अधुरा है। सत्य के एक पक्ष को पकड़ कर दूसरा पक्ष बिल्कुल ही नकार दिया गया है।
परिणाम स्वरूप वि. सं. 1931 में उन्होंने 'मुखवस्त्रिका' मुँह पर बाँधने की रुढ़ परम्परा छोड़ी और 1932 में आषढ मास में जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक परम्परा के वयोवृद्ध विद्वान संत श्री बुद्धि विजय जी म.सा. ( श्री बूटे राय जी म.) के पास अनेक साथी श्रमणो के साथ अहमदाबाद में श्वेताम्बर जैन संवेगी दीक्षा धारण की। पंजाब से मारवाड़, गुजरात सर्वत्र उनकी धर्मक्रांति की विजय दुंदुभि बज उठी।
मुनि आत्माराम ने देखा कि मारवाड़, गुजरात, सोराष्ट्र आदि क्षेत्रों में श्वेताम्बर मूर्ति पूजक परम्परा का व्यापक प्रसार है, प्रभाव है। परन्तु पंजाब में मूर्ति पूजा और जिनमंदिर का बिलकुल नगण्य प्रचार है। अनेक स्थानों पर प्राचीन जिनमंदिर बने हुए है, जो अपने गौरवमय अतीत के साक्षी है, परन्तु आज वे प्राय: जीर्ण-शीर्ण दशा में है, और उनके दरवाजे बंद पड़े है। वहां पूजा अर्चना-भक्ति करने वाला कोई इक्का दुक्का व्यक्ति ही पहुँचता है। यह स्थिति देखकर उन्होंने संकल्प किया - " मैं पंजाब में धर्म का पुनउद्धार करूँगा। जिन मंदिरों का जीर्णोधार करवाऊंगा। मूलरूप से शुद्ध प्रचीन जैन परम्परा को पुनरुज्जीवित करूँगा।
आचार्य पद
वि. सं. 1943 में आपने तीर्थाधिराज सिद्धगिरी शत्रुंजय में चातुर्मास किया। उस चातुर्मास में भारत भर से हजारों-हज़ार लोग आपके दर्शनार्थ आए। सेकंडो श्री संघो ने आपको आचार्य पद ग्रहण करने की आग्रहभरी प्रार्थना की। कलकत्ता निवासी रायबहादुर बद्रीदास जी के नेतृत्व में समस्त जैन समुदायों की भावभरी विनती और समय की मांग को देखते हुए आपने आचार्य पद स्वीकार किया। चातुर्मास पश्चात् मार्गशीर्ष वदि 5 के शुभ मुहूर्त में लगभग 35 हज़ार की विशाल जनमेदिनी के बीच अत्यन्त उत्साह , और आनंद पूर्वक मुनि आत्माराम जी को आचार्य पद प्रदान किया गया। तप्पागच्छ की गौरवमयी पावन परम्परा में दीर्घ काल से चली आ रही एक कमी की सम्पूर्ति हुई।
इतिहास साक्षी है, भगवान् महावीर के प्रथम पट्धर गणधर सुधर्मा स्वामी की इस पवित्र पट्ट परम्परा में 61वें पाट पर श्री विजय सिंह सूरी जी विराजमान थे। वि. सं. 1708 में वे काल धर्म को प्राप्त हुए। उनके पश्चात 11 पाट तक किसी को भी आचार्य पद नहीं दिया गया। 235 वर्ष का लम्बा समय बिना आचार्य के ही बीता। वि. सं. 1943 में कालचक्र ने पुनः करवट ली। भगवान सुधर्मा स्वामी के गण में उनके 73वें पाट पर आचार्य श्री मद विजय आत्माराम जी म.सा. जैसे शासन प्रभाकर आचार्य प्रतिष्ठित हुए। आप जैसे महान युग प्रवर्तक के आगमन से सम्पूर्ण जैन संघ, धर्म संघ और भगवान महावीर की आचार्य परम्परा गौरवान्वित हुई। जैन संघ को एक उत्कृष्ट विद्वान, प्रखर व्याख्याता,, उतम चरित्र पालक, समर्थ धर्मनायक मिले। ऐसे आचार्य की प्राप्ति सम्पूर्ण जैन शासन के अभुय्दय और उत्कर्ष का प्रतीक बनी।
मुनि विजय वल्लभ के दूरदर्शी परामर्श से आचार्य श्री बहुत प्रभावित हुए और मुंबई के प्रसिद्ध बेरिस्टर जैन विद्वान् श्री वीरचंद राघव जी गाँधी को बुलाया गया। उन्हें जैन धर्म के सिधान्तो व मूलभूत रहस्यों का प्रशिक्षण दिया गया तथा आचार्य श्री जी ने अपने विचारों को एक निर्णय के रूप में लिख कर मुनि श्री वल्लभ विजय जी को दिया। उन्होंने उसकी स्वच्छ प्रतिलिपि करके श्री वीरचंद भाई को दी जो 'चिकागो प्रश्नोतर' के नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य श्री जी का सन्देश लेकर वीरचंद भाई विश्वधर्म परिषद में सम्मिलित हुए।
पंजाब के जैन समाज में जिनमंदिर-निर्माण, पूजा, जीव दया आदि धार्मिक क्रियाएं तो बहुत होती रही है, परन्तु दीक्षा का प्रचार बहुत कम था। दूरदर्शी आचार्य श्री विजयानंद सुरिश्वर जी ने आने वाले समय को पहचाना। अंग्रेजी सभ्यता के प्रभाव से भारतीय समुदाय में, भारत की समाज व्यवस्था में शिक्षा का महत्व विशेष स्थापित हुआ और स्थान स्थान पर स्कूल कालेज आदि स्थापित होने लगे। आर्य समाज के अग्रणी नेताओं ने भी पंजाब आदि में हिन्दू कालेज आदि शिक्षण संस्थानों की स्थापना में विशेष प्रयत्न किया। परन्तु जैन समाज का कोई ऐसा विद्यालय, कालेज या शिक्षण संस्थान नहीं था। जिसमें जैन छात्रों को जैन संस्कृति और संस्कारों के अनुरूप शिक्षण दिया जा सके और उच्च शिक्षा की पृष्टभूमि तैयार की जा सके।
आचार्य श्री विजयानंद सुरिश्वर जी महाराज की यह प्रबल भावना थी कि पंजाब में जैन गुरुकुल, जैन कालेज आदि स्थापित हों। विद्या और शिक्षा के क्षेत्र में जैन समाज पिछड़ा हुआ है। उन्होंने इस दिशा में प्रयत्न प्रारंभ किये। गुजरांवाला में जैन गुरुकुल की स्थापना की योजना बनी। परन्तु इसी बीच आचार्य श्री का स्वास्थ कमजोर हुआ और वि. सं. 1953 जेठ सुदी 7 रात्रि को गुजरांवाला में उनका स्वर्गवास हो गया।
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