जैसा कर्म, वैसा फल : आचार्यश्री महाश्रमण*
भगवती सूत्र के आधार पर आचार्यश्री ने कर्म शक्ति की प्रबलता का किया वर्णन
-कालूयशोविलास सरस संगान का श्रवण कर भक्त हो रहे निहाल
घोडबंदर,ठाणे (महाराष्ट्र) :- मायानगरी मुंबई में पांच महीने का चातुर्मास करने के लिए घोडबंदर स्थित नन्दनवन में विराजमान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, अध्यात्म जगत के देदीप्यमान महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमणजी नित्य प्रति अपने आगमिक रूपी ज्ञानरश्मियों से जन-जन के मानस को आलोकित कर रहे हैं। धर्म-अध्यात्म से भागती दुनिया को सन्मार्ग दिखा रहे हैं। ऐसे महासूर्य के रश्मियों से आलोकित होने के लिए प्रतिदिन हजारों की संख्या में श्रद्धालु उपस्थित होते हैं।
तीर्थंकर समवसरण में समुपस्थित श्रद्धालु जनता को अणुव्रत यात्रा प्रणेता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवती सूत्र आगम के माध्यम से पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि प्रश्न किया गया कि पाप कर्म पाप फल विपाक से संयुक्त होते हैं क्या? उत्तर दिया गया कि हां पाप कर्म पाप फल विपाक शक्ति से सम्पन्न होते हैं। इसी प्रकार पुण्य कर्म भी पुण्य फल विपाक शक्ति से सम्पन्न होते हैं। इन कर्मों के गूढ़ सिद्धांत को आचार्यश्री ने सरल दृष्टांत के माध्यम से जनता को उत्प्रेरित करते हुए कहा कि बहुत मनोज्ञ पदार्थ बना हो और उसमें विष मिला जाए, खाने में वह स्वादिष्ट तो है, लेकिन कुछ ही देर में उसका परिणाम आएगा कि उसे खाने वाले का प्राणांत हो गया। उस भोजन में मारने की क्षमता वाला विष मिला दिया गया तो वह स्वादिष्ट होते हुए भी प्राणघातक बन गया। इसी प्रकार उसी मनोज्ञ भोजन में विष के स्थान पर शरीर के समस्त विकारों का नाश करने वाली औषधि मिला दी जाए। औषधि के मिश्रण से मनोज्ञ पदार्थ को खाने में भले स्वाद न आए, किन्तु खाने के बाद शरीर के विकास दूर हो जाएं, शरीर में ऊर्जा का संचार हो जाता है। उसी प्रकार कर्म फल में ऐसी शक्ति सन्निहित होती है जो आदमी जैसा कर्म करता है, उसे कर्मों का विपाक होकर वैसा ही फल प्राप्त होता है।
कोई झूठ बोल दे, छल कर ले, चोरी कर ले, एक बार तो उसे भले अच्छा लग सकता है, किन्तु उसका मूल परिणाम तो बुरा ही होता है। इसी प्रकार सत्कर्म, अहिंसा, सेवा, मैत्री, धर्म-ध्यान आदि कर्म के विपाक का फल भी सुखदायी होता है। अच्छे कर्मों का प्रतिफल अच्छा ही होता है। इसलिए आदमी को अच्छे कर्म करने का प्रयास करना चाहिए। 18 पाप रूपी कर्मों का परित्याग कर आदमी सत्कर्म करने का प्रयास करना चाहिए। सत्कर्मों से आत्मा का कल्याण संभव है। पुण्य की पूंजी होती है तो आगे भी सुख की प्राप्ति संभव हो सकती है।
मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने समुपस्थित जनता को ‘कालूयशोविलास’ का सरसशैली में संगान और आख्यान से भी लाभान्वित कराया। वर्तमान युग के युगप्रधान आचार्यश्री के श्रीमुख से पूवाचार्य के समय के इतिहास और रोचक प्रसंगों का श्रवण कर श्रद्धालु हर्ष विभोर नजर आ रहे थे। आचार्यश्री ने समुपस्थित श्रद्धालुओं को उनकी धारणा के अनुसार तपस्या का प्रत्याख्यान कराया। आचार्यश्री की अनुज्ञा से मुनि राजकुमारजी ने गीत के माध्यम से उपस्थित जनता को प्रेरित किया।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें