अब हम कर्मणा जैन बनें
इंसान कर्म से महान बनता है
जे. के. संघवी(ठाणे- आहोर)
एक विचित्र प्रश्न यह है कि क्या हम जैन है? हाँ, जैन परिवार में जन्म लेने के कारण हम जैनी तो कहला सकते हैं, किन्तु यदि जैनत्व के संस्कार हमारे में नहीं है, फिर हम जैनी कैसे?
श्रमण भगवान महावीर ने कहा है कि इन्सान जन्म से नहीं कर्म से महान बनता है। उच्च कुल में जन्म लेकर भी यदि यह दुष्कार्य करता है, तो उसे खानदानी या ऊंचा कैसे कहा जा सकता है?
हम भी जन्म से तो जैन है किन्तु जरा अपने आपको टटोले कि क्या हम कर्मवाद पर पूरा भरोसा रखकर पुरुषार्थ करने के बजाय देवी-देवताओं और के समक्ष भी धन- दौलत, यश, सुख की याचनायें तो नहीं कर रहे हैं?* *हमारे दैनिक जीवन में व्यवहार में अहिंसा, समता, नैतिकता, प्रामाणिकता के दर्शन हो रहे हैं, या नहीं? अर्थात् जैनत्व के संस्कारों के बिना हम जैनी कहलाने के हकदार नहीं है।
हमारे सारे कार्य कलापों में जैनत्व की झलक मिलनी चाहिये। मंदिर, उपाश्रय, घर, दूकान या प्रतिष्ठान में हमारी कथनी-करनी में एक रूपता होनी चाहिये। किसी भी प्रसंग पर जैन संस्कृति के अनुरूप हमारे आचारों की झलक स्पष्ट दिखायी देनी चाहिये। कोई भी व्यवहारिक प्रसंग चाहे शादी, जन्म या मरण का हो, हमें कोई बहाना बना कर जैनत्व को ताक में नहीं रखना चाहिये। हमारे यहाँ झूठे मान- सन्मान को आगे लेकर कभी भी अभक्ष्य पदार्थ या रात्रि भोजन आदि का उपयोग नहीं होना चाहिये। यदि हम हमारे सिद्धान्तों की राह पर चलें तो ही हम सच्चे जैन हैं, कर्मणा जैन हैं।
हम वीतरागी के पूजक है, अतः उनके नाम का दुरुपयोग अपने व्यवसाय धंधे में नहीं करना चाहिये। तीर्थंकरों, गुरुओं या जैन नाम व्यापारिक प्रतिष्ठानों में जोड़ने से उनका अनादर होता है। कभी उस प्रतिष्ठान ने कोई अप्रामाणिकता की होवे तो उस निमित्त पूरा जैन समाज बदनाम होता है। अतः भक्ति के अतिरेक के रूप में कई लोग नासमझ के कारण इन नामों का उपयोग करते हैं, जो असामयिक है।
हमारे घर प्रवेश होते ही आने वाले को यह आभास होना चाहिये कि यह जैन का घर है। स्वच्छता एवं सादगी के साथ भगवान, जिन तीथों आदि के चित्र, जैन प्रतीक भी घर में होने चाहिये। विशेष रूप से बैठक कक्ष में जैन साहित्य का भी अपना एक अलग स्थान रखना चाहिये। परस्पर अभिवादन के समय अपने आराध्यदेव के स्मरण स्वरूप 'जयजिनेन्द्र' शब्द का उपयोग करना चाहिये। हमें दैनिक कार्यक्रम के प्रत्येक कार्य में जैन संस्कृति को प्रतिष्ठित करना होगा। जैनत्व के संस्कारों को जीवन में उतारकर ही हम कर्मणा जैन बन पायेंगे।
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