कोरोना के अग्निपथ पर… महाराष्ट्र सफल, केंद्र निष्फल!
झूठ की उम्र ज्यादा नहीं होती और सच छिपाए नहीं छिप सकता। पिछले एक वर्ष से महाराष्ट्र सरकार की जिस तरह से स्वार्थी सियासत घेराबंदी में जुटी थी, उसका अब खुद-ब-खुद पर्दाफाश हो चुका है। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की दूरदर्शिता, संयम और निर्णय क्षमता का लोहा अब देश के सर्वोच्च संस्थानों से लेकर सियासत में उनके धुर विरोधियों को भी मानना पड़ रहा है। कोरोना के इस संकटकाल में तथ्यों को बिना छिपाए परिस्थिति का जबरदस्त ढंग से सामना करने में उद्धव ठाकरे सरकार शत-प्रतिशत सफल रही है। महाराष्ट्र सरकार के प्रयासों की वैश्विक स्तर पर भी जोरदार प्रशंसा हो रही है और राष्ट्रीय स्तर पर भी। विश्व भर में कोरोना से लड़ने के लिए महाराष्ट्र और खासकर मुंबई मॉडल पर अमल हो रहा है। पिछले वर्ष भी धारावी पैटर्न ने ही उम्मीद की राह दिखलाई थी। वहीं दूसरी ओर केंद्र की कमजोर नीतियों, पार्टी विस्तार की आत्ममुग्ध नीति, अब भाजपा के प्रशंसकों को भी खलने लगी है। ‘भक्तों’ की भड़ास सोशल मंच पर नजर आने लगी है।
कोरे वादों और पुख्ता प्रशासन के बीच अंतर क्या होता है, यह केंद्र और महाराष्ट्र की सरकारों की अलग-अलग प्राथमिकताओं में नजर आ रहा है। पिछले एक साल में केंद्र की भाजपानित सरकार ने जहां स्वहित के लिए सर्वस्व दांव पर लगा दिया, वहीं महाराष्ट्र की महाआघाड़ी सरकार ने जनहित में राजनीतिक नुकसान की परवाह तक नहीं की। जिन जिम्मेदारियों का निर्वहन करना केंद्र का जिम्मा था, उनमें लापरवाही हुई या भेदभाव किया गया तो महाराष्ट्र सरकार ने स्वबल पर उन मुद्दों का समाधान खोज लिया, ताकि जनता हर हाल में सुरक्षित रह सके। राज्य का अर्थ तंत्र भी चलता रहे और कोरोना का अनर्थ चक्र भी हावी न होने पाए। एक उम्दा और पारदर्शी नियंत्रण नीति महाराष्ट्र में लागू की गई। इस दौरान मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को उनके कर्तव्य से विमुख कराने के लिए कई प्रयास हुए, निरंतर दबाव बनाया गया, अनर्गल आलोचनाएं की गर्इं पर विरोधियों की हर चाल का जवाब सरकार ने बयानों की बजाय अपने सार्थक शासकीय निर्णयों से दिया।
देश में कोरोना की दस्तक के पहले दिन से महाराष्ट्र सरकार ने उससे लड़ने की अपनी क्षमता में इजाफा किया। कारगर नीति बनाई और उसे सफलता से लागू भी किया। कोरोना का प्रकोप बढ़ा तो संसाधनों की कमी भी हुई पर उन सभी को पार करते हुए महाराष्ट्र ने बहुत ही प्रभावी तरीके से परिस्थितियों पर काबू पाया। वहीं पड़ोसी राज्यों ने तथ्यों पर पर्दा डालकर अपने राज्य की जनता को मुसीबतों में डाल दिया। यूपी, एमपी और गुजरात जैसे राज्यों में अंदर ही अंदर कोरोना का विस्फोट होता रहा और वहां की सरकारें हालात पर पर्दा डाले सब कुछ काबू में होने का आभास कराती रहीं। एमपी में लाशों के ढेर लग गए। गुजरात के गांवों में कोरोना के प्रकोप से मौत का तांडव हुआ। एक-एक गांव में १५ दिनों में ५०-५० मौतें हुर्इं। श्मशान का लोहा पिघल गया पर केंद्र और भाजपा की राज्य सरकारों का दिल नहीं पिघला। यूपी में कोरोना ने और विकृत रूप लिया। ब्लैक फंगस का इंफेक्शन बढ़ा। इम्यूनो कंप्रोमाइज्ड डिजीज के सैकड़ों शिकार हुए। तो वहां नदियों के किनारे सैकड़ों शवों को दफना दिया गया। जो दफनाए न जा सके, उन्हें यूं ही नदी में बहा दिया गया। प्रदेश के तमाम बड़े शहरों में मौत के आंकड़े घोषित आंकड़ों से कई गुना अधिक होने की खबरें आर्इं। आरोप लगे कि उत्तर प्रदेश में हद से ज्यादा अमानवीयता हो रही है। सरकार अपनी इमेज बनाने में व्यस्त है और जनता की पीड़ा असहनीय हो चुकी है। उच्च न्यायालय के न्यायधीश की निगरानी में तुरंत न्यायिक जांच की मांग भी उठी। परंतु भाजपाई नमो-नमो में व्यस्त रहे। ऑक्सीजन बूस्टर के नाम पर ‘प्रचार बूस्टर’ चलता रहा।
हालात यहां तक आ पहुंचे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रशंसक, हर मोर्चे पर भाजपा का बचाव करनेवाले, भाजपा सांसद किरण खेर के अभिनेता पति अनुपम खेर को भी मुंह खोलना पड़ा। ‘बहती लाशों का असर भला किस पर नहीं होगा!’ अनुपम खेर ने कहा, ‘कहीं-न-कहीं ये फिसल गए हैं। शायद वो वक्त आ गया है जब उन्हें समझना चाहिए कि महज अपनी छवि गढ़ने से ज्यादा जरूरी लोगों की जिंदगी है। मेरा मानना है कि कई मामलों में सरकार की आलोचना सही है। सरकार को लोगों ने ही चुना है और उसे करना होगा। मैं मानता हूं कि जो अमानवीय होगा, वही गंगा में बहती लाशों से प्रभावित नहीं होगा।’ दरअसल, अपने चेहरे से जब अपने ही नकाब उतारने लगें तब तो सचेत हो ही जाना चाहिए। भाजपा के समर्थक, कार्यकर्ता व जनप्रतिनिधि जब अपनी ही सरकार की खुली आलोचना पर उतर आए तो कम-से-कम नींद टूटनी चाहिए। पश्चिम बंगाल में चुनाव खत्म हो चुके हैं, नकारात्मकता के नतीजे आ गए हैं। यूपी के ग्राम पंचायत चुनाव भी संकेत दे ही चुके हैं। कोरोना से लड़ने के लिए नीति बनाने का समय प्रचार में खप चुका है। सरकार की फिजूलखर्ची पर प्रश्न उठ रहे हैं। किसान परेशान हैं, वैक्सीन उपलब्ध नहीं हो रही। लोगों के सामने आजीविका का संकट है। मुद्दे तमाम हैं, उन पर चिंतन और निर्णय केंद्र को लेने हैं। प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल को करने हैं। कोरोना के संकट से निपटने के लिए विपक्ष लगातार केंद्र को सुझाव दे रहा है, विशेषज्ञ भी उपाय सुझा रहे हैं, उन पर अब मंथन और अमल शुरू होना चाहिए। जनता के मन की बात न सही, उसके मन के भाव तो समझने ही चाहिए, वर्ना अबकी चुनावों में वो भावनात्मक नहीं हुई तो सिंहासन डोल सकता है। महाराष्ट्र तो अपनी लगन और समर्पण से कोरोना के अग्निपथ को पार कर जाएगा, कहीं दुनिया की ‘सबसे बड़ी पार्टी’ जनाक्रोश की झुलस में बदरूप न हो जाए!
(लेखक दोपहर का सामना के निवासी संपादक हैं)
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