प्रशांत विनयशील सरल स्वभावी ही संयम का सोपान चढ़ सकता है - विज्ञमति माताजी
संयम जीवन सुखों का जनक है -
टोंक,:- जन जन की मार्ग प्रेरिका, कथनी करनी के भेद को मिटाने वाली, परम पूज्या अध्यात्म योगिनी *गणिनी आर्यिका 105 श्री विशुद्धमति माताजी की दीक्षित शिक्षित परम पूज्या आर्यिका रत्न 105 श्री विज्ञमति माताजी* ने पर्युषण पर्व की उत्तम बेला में उत्तम संयम धर्म के बारे में बताते हुए कहा कि संयम बंधन का दिन हैं, जो जन से, धन से, पर पदार्थों से दूर रहने की प्रेरणा एवं स्व पदार्थों का स्वागत करने का उपदेश देता है।ये बंधन वह नहीं जो दुखदायी हो वरन ये तो सुखों का जनक है।
जिस प्रकार बहती हुई नदी के लिए 2 तट नितांत आवश्यक हैं, अन्यथा वह सुख कर बर्बाद हो जाएगी, ठीक इसी प्रकार मानव जीवन रूपी नदी के लिये संयम रूपी तट अत्यंत आवश्यक है। वह संयम चाहे छोटे छोटे नियम के रूप में ही क्यों न हो एक दिन वटवृक्ष रूप सिद्ध होता है, इसीलिए कहा है-
घुटनों के बल चलते चलते पांव बड़े हो जाते है
छोटे छोटे नियम भी इक दिन बहुत बड़े हो जाते हैं।
पूज्य माताजी ने संयम के भावों को अपनी तूलिका से श्रृंगारित करते हुए लिखा-
संयम बिन, ज्ञानी भावों में, कैसे टिक पाए
बिन अंकुश, मन तेरा तुझमें, कैसे रुक पाए
संयम और चारित्र बिना, तू कैसा है ज्ञानी
ये खुजलीवत है क्रिया, मत कर तू मनमानी
विज्ञमति माताजी ने कहा कि बिना संकल्प के इस मनुष्य की जिंदगी दीमक लगी लकड़ी के समान होती हैं जो अंदर ही अंदर उसे खोखला कर देती हैं।उन्होंने बताया कि संयम का जीवन में उतना ही महत्व है जितना अश्व के लिये लगाम, हाथी के लिए अंकुश, ऊंट के लिए नकेल और गाड़ी के लिए ब्रेक।
मानव पर्याय की सार्थकता को बताते हुए माताजी ने अपने प्रवचन में कहा कि रे मानव केवल तू संयम रख सकता है, इसलियें देवता भी नरभव को तरसता हैं।
उन्होंने आगे बताया कि अनादि काल से हे मानव! तू भोगो में रचा पचा है लेकिन तू अज्ञानी है तू भोगो से हुई दुर्दशा को नहीं समझ पाया है।आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश ग्रन्थ की 17वीं कारिका में लिखा है की आरंभ में संताप को उत्पन्न करने वाले भोगों के प्राप्त हो जाने पर भी ये तृष्णा को बढ़ाने वाले है और अंत में अत्यंत कठिनाई से त्याग किये जाते है । इसलिए हे बुद्धिमानी श्रावको! पंचेन्द्रिय के विषयों का निग्रह और संयम का अनुग्रह करों, क्योंकि संयम ही आत्मा की एक ऐसी पूंजी है जो व्यक्ति को इस लोक में पूज्य और परलोक में उत्तम स्थान प्राप्त कराती है।
उत्तम संयम धर्म पर पूज्या माताजी की महत्वपूर्ण सूक्तियां-
विज्ञमति माताजी ने कहा कि पांचों इन्द्रियों का दमन करों और जिससे तुम्हें सुख मिलता हैं उन्हें बिल्कुल त्याग दो।मनोज्ञ और अमनोज्ञ पदार्थों में राग द्वेष न करना ही पांच इन्द्रियों का संवर हैं।भो आत्मार्थी! अनुप्रेक्षाओं का चिंतन, स्वाध्याय में उद्यमी और इन्द्रिय विषयों से मुख मोड़ना ही मन को जीतना हैं।असंयमी निरन्तर हिंसादि व्यापारों में लिप्त होने से अशुभ कर्मों का संचय करता हैं।
संयमी आत्मा की यहां पूजा होती हैं, परलोक की तो बात ही क्या? इस संसारी प्राणी को मनुष्यत्व, उत्तम जाति आदि, जिनवाणी श्रवण, लंबी आयु,सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान, ये सब मिलने उत्तरोत्तर अधिक अधिक दुर्लभ हैं। ये सब भी संयम के बिना स्वर्ग व मोक्ष रूप अद्वितीय फल को नहीं दे सकते। इसलिए संयम प्रशंसनीय हैं, अनुकरणीय हैं।
इस दुस्सह पंचमकाल में मनुष्यों के सम्यग्दर्शन सहित तप, व्रत, 28 मूलगुण, चारित्र, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दान आदि सब होते हैं।पंचमकाल में शुक्ल ध्यान सम्भव नहीं पर धर्म ध्यान अवश्य सम्भव हैं।तिर्यंच 2 मास और मुहूर्त पृथक्त्व अर्थात 3 मुहूर्त से ऊपर तथा 9 मुहूर्त से नीचे सम्यक्त्व और संयमाचरण को धारण करता हैं।
अभिषेक जैन / लुहाडीया रामगंजमंडी
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