महावीर के आदर्श आज के लोकतंत्र का आधार हैं


महावीर ने जनतंत्र का सूत्र स्वतंत्रता को माना

पारसमुनि म.सा.

😊भगवान महावीर 2620 वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र में पैदा हुए। वैशाली उस समय लिच्छवि जाति के क्षत्रियों का एक गौरवशाली जनतंत्र था, जिसने सम्राट बिम्बिसार और अजातशत्रु जैसे महान शासकों से अनेक बार टक्कर ली थी। 

☝भगवान बुद्ध ने एक बार सम्राट बिम्बिसार के अमात्य वर्षकार से कहा था- जब तक लिच्छवियों में जनतंत्र व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहेगी, वे पराजित नहीं होंगे। कहा जाता है कि वर्षकार ने इनमें फूट डालकर जनतंत्र को दूषित कर दिया। फलतः बिम्बिसार के हाथों वे पराजित हो गए। 

😊लिच्छवि गणतंत्र में प्रत्यक्ष मतदान व्यवस्था (डायरेक्ट डेमोक्रेसी) थी। बहुमत का निर्णय स्वीकार किया जाता था। उसे फिर क्रियान्वित भी किया जाता था। इस वातावरण में पले महावीर के मन पर जनतांत्रिक व्यवस्था का गहरा प्रभाव था। 

☝सर्वप्रथम उन्होंने ईश्वर का ही जनतंत्रीकरण किया। उसकी एकाधिकारवादी सत्ता को समाप्त किया। उनकी अवधारणा का ईश्वर, सृष्टि का कर्ता-धर्ता और नियामक नहीं, मात्र वह आत्मा है, जो कर्मरज से मुक्त हो चुकी है। 

🙏हर आत्मा साधना द्वारा मुक्त होकर यह स्थिति प्राप्त कर सकती है। सिद्धत्व का द्वार सबके लिए खुला है। जाति, वर्ण, रंग, लिंग, धन, सत्ता आदि की दृष्टि से कोई भेद ही नहीं। 

☝महावीर ने जनतंत्र का प्रथम सूत्र स्वतंत्रता को माना और कहा था किसी प्राणी का हनन, शोषण, उत्पीड़न और दासत्व न हो। उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता और तंत्रहीनता नहीं था क्योंकि स्वच्छंदता दूसरों के हितों का अतिक्रमण करती है। वे स्वतंत्र का अर्थ आत्मसंयम बताते थे। 

✋संयम नैतिक स्वतंत्रता है जिसके अभाव में राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है। आज यह एक स्वयं प्रमाणित तथ्य है। उन्होंने गणतंत्र के लिए समता और सह-अस्तित्व को भी अनिवार्य बताया। 

👌समता को धर्म माना, जो सुख-दुख के प्रति सम-भाव तथा प्राणी मात्र के प्रति समत्व-दृष्टि का प्रतीक है। यह समता स्थानीय अधिकारों, सामाजिक तथा आर्थिक विषमता को स्वयं समाप्त कर देती है। अपरिग्रह और विसर्जन आदि सिद्धांतों में इसके बीज प्रकट रूप में मिलते हैं। 

😊वे जाति में नहीं, कर्म में विश्वास करते थे। उन्होंने धन और सत्ता को मानव पर प्रतिष्ठा नहीं दी। उनके लिए सह-अस्तित्व का अर्थ था, हर व्यक्ति दूसरे के जीवन तथा अधिकार का आदर करे। उसका अतिक्रमण न करे। 

😊वे किसी पर कोई आग्रह थोपना गलत मानते थे। अपनी अपेक्षा से हम सही हो सकते हैं तो हमारा प्रतिपक्षी उसकी अपनी अपेक्षा से सही हो सकता है। विचारों और जीवन पद्धतियों को लेकर किसी के प्रति असहिष्णुता या विरोध नहीं होना चाहिए.....

वीर वह है जो अपनी शक्ति से भयभीत नहीं 👇

😊हमारा 'आज' अराजक दौर से गुजरने के लिए अभिशप्त हो गया है। उस पर कोई नियंत्रण करने वाला नहीं है और न ही कोई खुद में बदलाव लाने की जिम्मेदारी उठा रहा है। जीवन में अफवाहों के लिए इतनी जगह बन गई है कि 'भरोसे' और 'संबंध' को टूटने में देर नहीं लग रही है। 

😟मानवता और संवेदना की बात तो छोड़ें, वीरता की भी नई परिभाषा बन गई है। नफरत फैलाने वाले सिर उठा कर ऐसे चल रहे हैं मानो विश्व-विजय कर लौटे हैं।

👎यह बड़े इतिहास की छोटी पुनरावृत्ति है। हमारा इतिहास सिकंदर, सीजर, चंगेज, नेपोलियन जैसे कथित वीर सम्राटों की गौरव-गाथाओं से भरा है। इनकी वीरता का मापदंड और अभिव्यक्ति है सत्ता का प्रसार, साम्राज्य का विस्तार, अपनी शक्ति द्वारा दूसरों का दमन।

😏 जिसके हाथों ने जितना मानवीय रक्त बहाया या जिसके अत्याचार से लोग जितने अधिक पीड़ित हुए, वह उतना ही वीर माना गया। श्रेष्ठता का मापदंड रहा मारना न कि बचाना, बांधना न कि मुक्त करना, दबाना न कि निर्बंध करना, पीड़न न कि पीड़ा-मुक्ति। इसमें स्वतंत्रता के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया। 

😍भगवान महावीर यहां एक नई बात कहते हैं- 'वीर वह है जो स्वयं तो बंधन-मुक्त है ही, दूसरों को भी बंधन-मुक्त करता है। जो खुद पूरी तरह स्वतंत्र है ही, दूसरों को भी स्वतंत्र करता है। जो दूसरों को अपनी शक्ति से भयभीत नहीं करता बल्कि भय से सदा के लिए मुक्त करता है।

☝' दरअसल हमने असहनशीलता को शौर्य से जोड़ दिया है। जो क्रोधी है, जरा सी बात पर तमतमा उठता है, अपने सामने वाले को कुचलने के लिए तैयार रहता है, वह वीर कहलाता है। 

👎उस क्रोधी सिकंदर की तरह जो मदिरा के नशे में चूर अपने मित्र अनेक्सोगोरस को एक जरा सी बात पर तत्क्षण भाले से मार डालता है। दूसरी ओर जब ईसा मसीह की हथेलियों की मांस-अस्थियों को चीरकर क्रॉस की कीलें लकड़ी में ठोकी जा रही है, तब हमें वह वीर नहीं प्रतीत नहीं होता। 

🤔ऐसी स्थिति में महावीर का वीरत्व हम कैसे समझ पाएंगे? हमने कायरता को ही हमेशा वीरता के रूप में प्रतिष्ठित किया है। वही आज भी हो रहा है। 

🤔कायर' शब्द कातर से निकला है। कातर वह होता है जो व्याकुल और बेचैन रहता है, झेल नहीं पाता है अपने पर किसी क्रिया का प्रभाव। ऐसी ही मानसिकता ने क्राइस्ट, महावीर, बुद्ध, गांधी, मार्टिन लूथर किंग को भी यातना देने से परहेज नहीं किया। इनमें हर किसी ने हिंसा को प्रशांत चित्त से पीकर यह बताया कि हिंसा और कुछ नहीं, एक अहंकारी सत्ता है।

🤗 उसका जवाब प्रतिहिंसा नहीं है। लेकिन आज जो हालात बन रहे हैं, वे बेहद चिंताजनक हैं। हिंसा का जवाब वैचारिक हिंसा के रूप में देने का सिलसिला शुरू हो गया है जो और भी खतरनाक है।

🤗जीवन का अधिकार सबका है 👇

☝महावीर कहते हैं, जिजीविषा सार्वभौम सत्ता है। जीने की इच्छा सबकी है, अतः जीवन का अधिकार भी सबका है। जीवन के लिए सबसे आवश्यक है सांस, जो प्रकृति से मिलती है। फिर जरूरी है पानी, जो प्रकृति की ही देन है और सर्वत्र मिलता है। तीसरी आवश्यकता है आहार। यह भी प्रकृति ने ही दिया है, लेकिन उसका स्वामित्व न अपने पास रखा है, न किसी को दिया है। 

✊लेकिन जिस जमीन पर अनाज पैदा होता है, आदमी ने व्यवस्था के नाम पर उस पर स्वामित्व की विभाजन रेखा खींच दी। उसकी उपज को भी संपत्ति बनाकर उस पर व्यक्तिगत मिल्कियत की मुहर लगा दी और रोटी को क्रय-विक्रय की वस्तु बना दिया। रोटी प्रतीक है भोजन का।

😟हवा-पानी की तरह रोटी भी जीवन का सार्वभौमिक सार्वजनिक स्रोत है। उसका संबंध जीवन से है और वह एक अनिवार्य साधन के रूप में अधिकार से जुड़ी है। महावीर कहते हैं कि रोटी से किसी को वंचित करने का अधिकार किसी को नहीं है। वह उसकी है जिसे भूख है और जो उसके लिए श्रम कर रहा है।

☝ इसलिए महावीर इशारा करते हैं कि भूखे को पहले रोटी खिलाओ, तभी वह समझेगा धर्म। लेकिन आदमी की व्यवस्था ने प्रकृति की हर चीज का बंटवारा किया और फिर उस पर स्वामित्व का आरोपण भी कर दिया। धीमे-धीमे आवश्यकता गौण और मालिकाना पकड़ मजबूत होती चली गई। इस कारण एक तरफ समाज में जहां अभाव का गड्ढा बना, वहीं दूसरी तरफ अति-भाव का पहाड़ तना। 

🤘रोटी ने संसार को दो टुकड़ों में बांट दिया। एक टुकड़ा रोटी को सर्वोच्च मूल्य मानकर जीवन के सारे परम सत्यों को नकार रहा है और दूसरा उनकी दुहाई देकर नकार रहा है रोटी के सार्वजनिक अधिकार को। 

🤗कार्ल मार्क्स से ढाई हजार साल पहले महावीर ने स्वामित्व पर सीधे चोट करने का काम किया था। अपने धर्म की नींव उसके नकार पर रखा और स्वामित्व के प्रतिपक्ष में विसर्जन का सूत्र दिया। 

☝उन्होंने कहा था, अच्छा हो कि संयम द्वारा हम अपने को नियंत्रित करें अन्यथा दूसरे हमें बंधन, बलात नियंत्रण तथा वध, रक्तपात और संहार द्वारा नियंत्रित कर देंगे।

सागर की गहराई से गहरा जिनका ध्यान |

आकाश की ऊंचाई से ऊंचा जिनका नाम |

घोर उपसर्ग अपार कष्ट सहे समभाव से,

उन मृत्युंजयी भगवान महावीर को मेरा शतशत प्रणाम |

लेखक गोंडल संप्रदाय के महामंत्र प्रभावक पू.जगदीशमुनि म.सा. के सुशिष्य हैं

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