मेरे हृदयसम्राट् - गुरु धर्म सूरिजी एवं गुरु वल्लभ सूरिजी

आज भी उनकी ऊर्जा सकारात्मकता का एहसास करवाती है। 


प्रवीण जैन लिगा, शिवपुरी (म.प्र.)


बा
ल्यकाल से परिवार के संस्कारों से गुरु वल्लभ की यशस्वी परंपरा से जुड़ाव रहा है तथा शिवपुरी (मध्य प्रदेश) में जिनकी समाधि है, ऐसे शास्त्रविशारद आ. विजय धर्म सूरिजी पर भी अमिट श्रद्धा रही है। दोनों ही गुरुदेव हमारे अनंत उपकारी हैं।


गुजरांवाला से आकर शिवपुरी में बसने वाले हमारे पापाजी श्रावकरत्न खजांचीलाल जी लिगा (तत्त्वचिंतक आ. विजय चिदानंद सूरीश्वर जी म. के सांसारिक पिताजी) ने जीवनपर्यंत दोनों गुरुदेवों की अपार भक्ति की तथा अच्छे-बुरे हर समय में दोनों गुरुभगवंतों के प्रति अमिट विश्वास रखा। 


इस वर्ष गुरु धर्म सूरिजी के कालधर्म के 100 वर्ष तथा गुरु वल्लभ के कालधर्म के 68 वर्ष पूर्ण होंगे। दोनों महापुरुषों के जीवन काल में कई वर्षों का अंतर रहा पर सच में जब इन दोनों महापुरुषों के जीवन को देखते हैं तो दोनों ही अप्रमत्त साधक और जिनशासन के महान प्रभावक दिखाई देते हैं। हमने उन दोनों ही विभूतियों के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं किये किंतु उनकी ऊर्जा उनकी सकारात्मकता का एहसास करवाती है। 


दोनों ही गुजरात रत्न -


आ. विजय धर्म सूरिजी का जन्म गुजरात के महुवा गांव में हुआ था किंतु दीक्षा पश्चात उनका विचरण प्रायः उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बंगाल आदि भूमि पर रहा और जहां धर्म का उन्होंने बीजारोपण किया। आ. विजय वल्लभ सूरिजी का जन्म गुजरात के बड़ौदा शहर में हुआ किंतु दीक्षा पश्चात उनका विचरण प्रायः पंजाब प्रदेश में रहा एवं गुरु आत्म के द्वारा इस क्षेत्र में की गई क्रांति को उन्होंने सींचा। दोनों ही गुजरात के गौरव हैं और अपनी जन्मभूमि के अतिरिक्त क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाया।


दोनों ही गुरु चरण सेवक -


प.पू.श्री वृद्धिचन्द्र म.सा. के प्रवचनों से प्रेरित होकर मूलचंद से मुनि धर्मविजय बन कर गुरु चरणों की सेवा करते हुए संयम जीवन को सुदृढता देते हुए लक्ष्य सिद्धि हेतु आगे  बढ़े साथ ही जब भी गुरुदेव का स्वास्थ्य प्रतिकूल रहता तब मुनि धर्मविजय जी दिन रात उनकी सेवा भक्ति करते। एक बार गुरुदेव को नींद आ गयी और जब आधी रात नींद खुली तो देखा अभी भी धर्मविजय गुरु सेवा कर रहे है,तब उन्होंने अंतर्मन से आशीर्वाद दिया- *जा बेटा तू होगा ज्ञानी, शासन स्तम्भ कहलायेगा, इस दुनिया में जैन धर्म का झंडा तू फहराएगा*। गुरु के आशीर्वाद से मुनि धर्म विजय आचार्य विजय धर्मसूरिजी के रूप में प्रख्यात हुए।  गुरु वल्लभ का जीवन देखे गुरु आत्म से प्रतिबोधित हो बालक छगन से वल्लभ विजय बने  तो गुरु आत्म एवं हर्ष विजय जी के प्रति उनका समर्पण अदभुत रहा।हर्ष विजय जी की स्वास्थ्य अनुकूलता नही होने पर उनकी भक्ति को स्वयं में रमा लिया और दीक्षा गुरु के देवलोकगमन पश्चात जब तक गुरु आत्म के साथ छाया की भांति रहकर हर श्वास गुरु आत्म के नाम समर्पित की एवं जीवनपर्यंत उन्हीं के नाम और कार्यों को जन जन तक पहुंचाया


दोनों ही दीर्घदर्शी


आ. विजय धर्म सूरिजी जानते थे कि यदि भविष्य में जैनधर्म को जीवंत रखना है तो मात्र साधु साध्वी श्रृंखला नहीं, श्रावक परंपरा को दृढ़ करना होगा और उनमें भी विशेष बहुश्रुत व्यक्तियों के कंधे पर शास्त्रों के पठन पाठन का दायित्व डालना होगा। उन्होंने काशी में यशोविजय जैन संस्कृत पाठशाला की स्थापना की और पंडित परंपरा को जन्म दिया। पंडित बेचरदास दोशी, पंडित सुखलाल संघवी आदि विद्वान उन्हीं की संस्थाओं की देन है।

आ. विजय वल्लभ सूरिजी की दीर्घकालिक दृष्टि से जन जन परिचित है किस तरह उन्होंने समय को जाना, परखा और उस अनुरूप प्रवृत्ति की। भले वह संक्रांति परंपरा का प्रारंभ हो, भले साध्वीजी को व्याख्यान देने की आज्ञा हो, भले जैन विद्यालयों का निर्माण हो, भले माइक के उपयोग की बात हो, गुरु वल्लभ ने हर क्षेत्र में समयज्ञता गुण सिद्ध किया। दोनों ही महापुरुषों ने अपनी दीर्घदर्शिता से समाजोद्धार के अनुपम कार्य कर अनंत उपकार किया।


दोनों ही प्रबुद्धविचारक -


आ. विजय धर्मसूरिजी से मार्गदर्शन लेने अनेकानेक विद्वान आते थे। हर शास्त्रीय विषय को चिंतन मनन करके परमात्मा और पूर्वाचार्य भगवंतों के आशय अनुसार समाज को मार्गदर्शन देते थे। 'देवद्रव्यसम्बन्धी मारा विचारो' इस गुजराती पुस्तक में लेख श्रृंखला के रूप में उन्होंने ज़ाहिर रूप में स्वप्न द्रव्य को साधारण द्रव्य में ले जाने को बात को यथोचित बताया था अर्थात जिस तरह से संघ निर्णय करे एवं अलग अलग तरीकों से उस बात को प्रमाणित किया। आ. विजय वल्लभ सूरिजी भी इसी मान्यता से प्रभावित थी और यही गुरु आत्म की मान्यता थी। पंजाब में आद्रा नक्षत्र लगता है या नहीं, इत्यादि कई सूक्ष्म प्रश्नों पर समाज को सचोट मार्गदर्शन गुरु वल्लभ ने देकर उपकृत किया था।


दोनों ही उपसर्गविजेता -


प.पू. विजय धर्म सूरिजी ऐसे समय में काशी पहुंचे थे जब जैन साधुओं को हीन दृष्टि से देखा जाता था। उनका विरोध करने के लिए मार्ग में मछलियों के टोकरे तक रखे गए लेकिन विद्याव्यसनी गुरुदेव विचलित नहीं हुए। उन्हें वहां स्थिरता हेतु आवास नहीं मिला, जो मिला वह जल्दी ही जर्जरित होकर गिर गया - फिर भी उन्होंने सब प्रतिकूलताओं को कर्मों का विपाक समझकर सहन किया। 

उसी तरह समाज हित हेतु जब गुरु वल्लभ ने शंखनाद किया तब अनेको स्थान पर उनका विरोध हुआ। कई स्थानों पर उनके खिलाफ हैंडबिलों को छपवाया गया, किंवदंती अनुसार एक जगह तो उनके मार्ग में कांच बिछाया गया लेकिन अगर उस समय वे डर गए होते, तो शायद आज हम गुरु वल्लभ को याद न कर रहे होते। वो समता योगी अविरल चलते रहे। गुरु धर्म सूरिजी को जैनेतर व्यक्तियों से उपसर्ग आये, गुरु वल्लभ सूरिजी को जैन समाज के व्यक्तियों से ही उपसर्ग आये किंतु दोनों ही महापुरुष अविचल रहे, अडिग रहे, अपने लक्ष्यों को समर्पित रहे एवं उपसर्गों कष्टों परीषहों को सहन करते हमारे लिए उपकारी सिद्ध होते गए।


दोनों ही भाषा के जादूगर -


आ. विजय धर्म सूरिजी 16 भाषाओं के जानकार थे। श्रुतदेवी की कृपा से उन्होंने विभिन्न विधाओं में लेखनी का प्रयोग किया। हस्तप्रतो का संशोधन और संपादन उनका जैन समाज पर महान उपकार था। अनेक ग्रंथों का उन्होंने लेखन किया जैसे अहिंसा दिग्दर्शन, ब्रह्मचर्य दिग्दर्शन आदि लगभग 100 छोटी बड़ी पुस्तकें लिखीं। आ. विजय वल्लभ सूरिजी प्रवचनप्रभावक और भक्तियोगी थे। वे अपने प्रवचन के माध्यम से जैन तथा जैनेतर - सभी को प्रभावित करने की कला रखते थे। गप्प दीपिका समीर, नवयुग निर्माता आदि पुस्तकों का लेखन उन्होंने किया। भक्ति के क्षेत्र में सैंकड़ों स्तवनों की रचना उन्होंने की है जिसमें से कई हम बचपन से गाते - सुनते - पढ़ते आये हैं।


दोनों ही राजप्रतिबोधक -


प.पू.धर्म सूरि जी महाराज द्वारा विभिन्न नरेशों ने प्रतिबोध प्राप्त कर राज्य हित हेतु कार्य किये।विक्रम संवत 1964 में काशी नरेश आपके प्रवचनों से प्रेरित हुए और भव्य सामैया कर नगर प्रवेश करवाया।नरेश ने स्वयं अनेक स्थानों से विद्वान धुरन्धर पंडितों को बुला कर ऐतिहासिक रूप से समारोहपूर्वक पूज्यश्री जी को *शास्त्र विशारद जैनाचार्य* की पदवी प्रदान की।इसके अतिरिक्त गुरुदेव श्री जी के प्रवचनों से प्रेरणा लेकर जोधपुर राजा महाराणा फतेह सिंह जी ने गुरुदेव की निश्रा में हुए इस सम्मेलन का सम्पूर्ण खर्च वहन किया। इतिहास बताता है कि उस समय प्रतिदिन 10 हजार विद्वान उनका प्रवचन सुनते थे।इसी प्रकार ग्वालियर नरेश भी विजय धर्म सूरि जी से आजीवन प्रभावित रहे और उनके देवलोकगमन पश्चात उनकी समाधि हेतु विशाल भूमि उपलब्ध करवाई।

गुरुदेव धर्म सूरि जी की भांति ही गुरु वल्लभ उस काल के महाराजा, जन नेताओं को प्रतिबोध देते रहे जिससे शासन प्रणाली उत्तम हो सके। नाभा में हुए शास्त्रार्थ से एवं नाभानरेश हीरासिंह जी द्वारा गुरु वल्लभ की भक्ति से जन जन परिचित है। बड़ोदा नरेश के अनुज सम्पत राव गायकवाड़,पालीताणा नरेश ठाकुर बहादुर सिंह,महाराणा उदयपुर आदि अनेको राजा महाराजा के साथ साथ जन नेता श्री मोती लाल नेहरू एवं अन्य भी गुरु वल्लभ के क्रांतिकारी एवं राष्ट्र प्रेम से भीगे हुए प्रवचनों से प्रभावित रहे।

आचार्य विजय धर्मसूरिजी के शिष्य आचार्य विजय भक्ति सूरीश्वरजी म.सा. से भक्ति सूरी समुदाय विख्यात हुआ एवं आ. विजयानंद सूरिजी के शिष्य आ. विजय वल्लभ सूरीश्वरजी से वल्लभ सूरिजी समुदाय विख्यात है। इन दोनों के स्मरण मात्र से हर कार्य सुलझ जाता है, ऐसा कई सुज्ञ भक्तों को प्रत्यक्ष अनुभव है। दोनों जिनशासन प्रभावक गुरु भगवंतों के चरणों में कोटिशः कोटिशः वंदन।

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