गुरु के प्रति समर्पण और भक्ति-भक्त और शिष्य

 प्रेम प्रसादी 

- प्रेरणा :

श्री गुरुप्रेम के आजीवन चरणोपासक परम पूज्य आचार्य श्री विजय कुलचंद्र सूरीश्वरजी (K.C) म.सा.


पू
जा करे, जो गुरु में श्रद्धा रखे, वह भक्त है।

शिष्य-जो गुरु के चरणों समर्पित हो, उनका आज्ञानुवर्ती बने, उनका अनुगामी बने। भक्त गुरु के प्रति समर्पित नहीं होता, शिष्य गुरु के प्रति समर्पित होता है । भक्त श्रद्धालु होता है और शिष्य समर्पित होता है।

अगर विश्लेषण किया जाए तो भक्त और शिष्य दोनों अलग-अलग हैं। भक्त विभक्त हो सकता है।किन्तु शिष्य कभी गुरु से दूर नहीं होता शिष्य, शिशु की तरह गुरु चरणों का सेवक बन जाता है, जैसे एक मां अपने बच्चे को रखती है शिष्य भी वैसे ही रहता है । गुरु के पास जाते हुए अपनी बुद्धि, अपना अहम छोड़ कर जाओगे तो ही योग्य शिष्य बन पाओगे ।

इंद्रभूति गौतम ने जब तक अपनी बुद्धि का मद किया, वह गौतम बना रहा इंद्रभूति ही बना रहा; जब भगवान महावीर के समवशरण में आया, उसने अपनी बुद्धि भगवान के चरणों में समर्पित कर दी; वह इंद्रभूति गौतम से गौतम गणधर बन गये ।

कहा जाता है कि गुरु चन्देसु निम्मलयरा' अर्थात चन्द्र से भी निर्मल एवं सूर्य से भी तेजस्वी होते हैं। वो अपनी निर्मलतम छाया एवम तेजस्विता का संचार अपने शिष्य में करने हेतु भी प्रयासरत रहते है ।गुरु पूर्णिमा के अवसर पर विश्व के सभी गुरुभगवंतो को कोटि कोटि वंदना |

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