प्रार्थना शब्दात्मक है और ध्यान मौन है :- पुलक सागर
प्रार्थना में प्रार्थी होता है, लेकिन ध्यान में कोई नही होता
अभिषेक जैन / लुहाडिया रामगंजमंडी
बांसवाड़ा :-आचार्य श्री पुलक़ सागर जी महाराज ने अपने उदबोधन में कहा प्रार्थना और ध्यान में बहुत अंतर है। प्रार्थना प्रवृति आत्मक है और ध्यान निवृति आत्मक है। वही ध्यान में भी मौन समर्पण होता है। ध्यान मे सब कुछ छूट जाता है, सब शास्त्र छूट जाते है, सब धर्म छूट जाता है, वहा न कोई हिन्दू है, ना मुसलमान, वहां जैन जैन नही होता, मात्र एक ध्याता होता है। आत्मा का सवेदन होता है। प्रार्थना में प्रार्थी होता है लेकिन ध्यान में कोई नही होता। ध्यान में तो मन भी नही होता। माँगने वाला मन भी निरोहित हो जाता है। उन्होंने मन तो भीख मंगा है, वह तो सदा ही मांगता रहता है।प्रार्थना मे पुकारना होता है, हाथ जोड़ने पड़ते है, आंखे खोलनी पड़ती है, याचना करनी पड़ती है। लेकिन ध्यान में माँन होना पड़ता है, आसन लगाकर बैठना होता है, आंख बंद रखनी होती है, और उसमे जो सम्रग भाव से मौन होने लगता है तो भीतर अपने आप प्रज्ञा का दिया जलने लगता है। उसकी लो अकम्प होती है। ध्यान स्वयं में स्वयं का किया जाता है, प्रार्थना किसी और की जातौ है। ध्यान किसी से किया नही जाता, ध्यान का किसी और से कोई संबंध नही ध्यान तो स्वयं का परिवर्तन है। स्वयं को निर्दोष बनाने की रासायनिक प्रक्रिया है। प्रार्थना परमात्मा की आस्था बढ़ाती है। लेकिन ध्यान करने मे स्वयं परमात्मा बनते है। यही ध्यान और परमात्मा का मौलिक अंतर है।
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