36 कॉम के प्रवासियों के लोकप्रिय संत सौभाग्य मुनि देवलोक
मुंबई से लेकर मेवाड़ तक न सिर्फ स्थानकवासी समाज बल्कि 36 कॉम के प्रवासियों के लोकप्रिय संत सौभाग्य मुनि जी महाराज का देवलोक गमन बेहद दुखद है. गुरुदेव ने मेवाड के श्रावको में सामाजिक एकता का जो बीजारोपण किया, उसी का नतीजा है कि मुंबई में मेवाड़ के प्रवासियों की हैसियत अलग दिखती है. गुरुदेव का सपना था कि मुंबई में मेवाड़ के प्रतीक के रूप में एक धरोहर स्थापित हो, जिसे उनके गुरु भक्तों ने साकार कर दिया गोरेगांव का मेवाड़ भवन युगो युगो तक सौभाग्य मुनि महाराज की याद दिलाएगा। उनकी ही प्रेरणा से अंधेरी में मेवाड़ छात्रावास लगभग बनकर तैयार है. शायद नियत को हॉस्टल का उद्घाटन गुरुदेव को देखना स्वीकार नहीं था. गुरुदेव अब नहीं रहे, लेकिन उनकी यादें, निशानियां, उनके बोले बचन उनके द्वारा प्रतिपादित सामाजिक एकता सदा बनी रहेगी। थे तो वे जैन संत लेकिन उनकी नजर सभी कौम पर रहती थी.
15 साल पहले गुरुदेव की ही प्रेरणा से मुंबई में मेवाड़ महोत्सव शुरू हुआ, जिसकी वे रिपोर्ट लिया करते थे. उन्हें कार्यक्रम होने से पहले तक पूरी सूचना गति प्रगति की रिपोर्ट से अवगत कराया जाता था और वह जरूरत पड़ने पर यथा योग्य मार्गदर्शन भी करते थे. कहा करते थे हर समाज के अलग-अलग कार्यक्रम होते हैं, लेकिन एक सामूहिक प्रयास भी होना चाहिए। शायद गुरुदेव मेवाड़ की सभी जातियों को मुंबई में एक मंच पर देखना चाहते थे. उनकी प्रेरणा से काफी कुछ कार्य भी हुआ और मुंबई में कई जगह बड़े आयोजन हो रहे हैं. मुंबई से मेवाड़ तक सभी जाति धर्म के लोग गुरुदेव के प्रति अपार श्रद्धा रखते थे. मेवाड़ के गांव गांव से परिचित रहे गुरुदेव उदयपुर, राजसमंद, चित्तौड़ और भीलवाड़ा के साथ ही मारवाड़ अंचल के कुछ जिलों में गुरुभक्त हैं
सौभाग्य मुनि प्रगतिशील सोच के संत थे. श्रावक से उसकी कुशलक्षेम पूछते थे, मार्गदर्शन करते थे और कारोबार व्यवसाय के साथ ही धर्म अध्यात्म के बारे में प्रेरित करते थे. मुंबई में मेवाड़ के श्वेतांबर जैन समाज की एकजुटता दिख रही है, उसमें गुरुदेव सौभाग्य व अन्य संतों की भूमिका महत्वपूर्ण है. गुरुदेव की प्रेरणा से मेवाड़ के सभी जिलों में एवं गुजरात समेत दक्षिण के कई जिलों में प्रवासियों ने एक से एक धरोहर खड़ी कर दी है, जो सदा अंबेश, सौभाग्य की याद दिलाएंगी। सौभाग्य मुनि महाराज की परंपरा में आ गए मेवाड़ प्रवर्तक मदन मुनि गुरुदेव जिन्हें हम भोले बाबा कहते हैं उनके कंधों पर बड़े श्रावक समाज का भार आ गया है. संतों का एक संघनिष्ट समूह सदैव गुरुदेव की सेवा में तत्पर रहा। जब से गुरुदेव अस्वस्थ रहे भीलवाड़ा, काकरोली, नाथद्वारा, चित्तौड़, पावन धाम फतहनगर और मुंबई आज जगहों पर गुरुदेव के स्वास्थ्य लाभ के लिए कई दिनों से नवकार महामंत्र का जाप किया गया. कई तत्पर कार्यकर्ताओं ने गुरुदेव को बचाने के लिए बड़े से बड़े डॉक्टरों की टीम लगाई लेकिन संभवत यह मंजूर नहीं था कि गुरुदेव हमारे बीच रहे और अरिहंत शरण हो गए. सबसे ख़ास बात ये कि गुरुदेव जहां दीक्षा लिए, उनका अंतिम संस्कार भी वहीं होगा।…जब आकोला के सुजानमल बने सौभाग्यमुनि
सौभाग्यमुनि एक यशस्वी रत्न थे जिन्होने मेवाड़ की धरा पर जन्म लेकर अपना वह उत्कर्ष साधा कि आज उनसे उनका जन्म स्थल,कुलवंश ही नहीं अपितु जैन व अजैन समाज गौरवान्वित अनुभव करता है। बेड़च नदी के किनारे बसे चित्तौड़ जिले के आकोला गांव में आपका जन्म हुआ। गांधी कुल में माता नाथबाई एवं पिता नाथूलाल आपको पाकर धन्य हो गए। अपनी पूज्या भगिनी उगम कुंवर एवं महान साध्वी रत्न सोहनकुंवर से उत्प्रेरित होकर सौभाग्यमुनि मेवाड़ सम्प्रदाय के आचार्य मेवाड़ भूषण मोतीलालजी म.सा.,भारमलजी म.सा.मेवाड़ संघ शिरोमणी पूज्य प्रवर्तक गुरूदेव श्री अम्बालालजी म.सा. के चरणों में विरक्ति रस का अनुपान करने रम गए। उस वक्त उम्र थी उनकी महज 12 वर्ष। विरक्ति का रस जीवन के रग रग में ऐसा रमा कि परिवार ने विपदाओं के पहाड़ खड़े कर दिये। वैरागी सुजानमल को उठा कर अहमदाबाद ले गए। किन्तु विरक्ति की धारा तो सुजान में ऐसी उमड़ रही थी कि वहां से बिना ही टिकट जैसे – तैसे खेरोदा गुरू चरणों में पहुंच ही गए। मार्ग में पुलिस, टी.टी. ने भी अनेक कष्ट दिए, किन्तु अड़िग वैरागी सुजान नमस्कार जाप कर नई शक्ति पाता रहा और मंजिल पर पहुंच गया। तीन माह पहाड़ी ग्राम रामा में सबसे छुप कर एकान्त रहना पड़ा। अन्ततः सच्चा वैराग्य सार्थक हुआ। विक्रमी संवत् 2006 माघ शुक्ला पुर्णिमा को कड़िया ग्राम के निकट विशाल वट वृक्ष के नीचे वैरागी सुजान की दीक्षा सम्पन्न हो गई। पुज्य अम्बेश गुरू ने सुजान को सौभाग्य बना दिया। नवदीक्षित सौभाग्य मुनि ने दीक्षा लेने के एक किले को फतह कर अध्ययन के दुसरे किले पर चढ़ाई कर दी। जैन जैनेतर धर्म ग्रन्थ, दर्शन ग्रन्थ, व्याकरण ग्रन्थ आदि का गम्भीर अध्ययन करने में सलंग्न हो गए। सिन्द्धान्ताचार्य और अनेक हिन्दी, संस्कृत की परिक्षाएं उत्तीर्ण कर एक विद्धान संत के रूप में सौभाग्य मुनि प्रवचन के पाठ पर आए। ओजस्वी तात्विक सम्प्रेरक प्रवचनों का जब प्रवाह चला तो समाज में एक नई लहर उमड़ गई। नवयुवकों में जाग्रति का संचार हुआ। समाज को सैकड़ों नए कार्यकर्ता दिए। फलस्वरूप सम्पूर्ण मेवाड़ क्षेत्र मुम्बई, सुरत, अहमदाबाद आदि स्थानों पर धर्मसंघ से जुड़ी अनेक संस्थाएं, धर्म स्थानक, सेवा संस्थान, साधना सदन, चिकित्सालय, छात्रावास, शिशु सेवा केन्द्र आदि खड़े हो गए। 20-25 वर्ष के प्रवास में पुज्य गुरूदेव ने अपने गुरूदेव का नाम तो रोशन किया ही मेवाड़ प्रदेश श्रमण संघ और जिन शासन का गौरव भी उच्चतम स्तर तक बढ़ाया है।जीवन परिचय
सन १९३७ का १० दिसम्बर का दिनांक गतिमान था। बालक सुजान के पूज्य पिता (अकोला, जिला चित्तौडग़ढ़, निवासी) श्री नाथुलालजी गांधी “पुर” कस्बे में दाणी (उस समय का एक शक्तिशाली अधिकारी जो सरकार के उस एरिये के आर्थिक पक्ष को देखता था) नामक अधिकारी थे। आदर्श अधिकारी और सुव्यवस्था के धनी पिता के द्वारा आये हुए जो संस्कार थे वे आज भी सौभाग्य मुनिजी विनम्र स्वाभाव में बहुत मधुरता लिए प्रवर्तमान होते लगते है। धार्मिक एवं पारमार्थिक संस्कार माता नाथबाई से मिले और व्यवहारिकता के बीज बहन उगम देवी ने बोये। सुजान जब १० वर्ष का था, बहन उगम देवी विधवा हो गई। जिस बहनोई जी पर सुजान का लगाम प्रेम था वे कराल काल गहवर में असमय ही विलीन हो गये, इस घटना ने बालक सुजान को बहुत उद्वेलित किया। वह अन्तर्मुखी सा रहने लगा। कुछ ही समय बाद मेवाड़ भूषण पूज्य श्री मोतीलालजी म.सा. का कुल ७ मुनियो के साथ आकोला वर्षावास हो गया। उन दिनों महासती सोहन कुंवरजी आकोला विराजित थी। उन्होंने उगम देवी को प्रतिबोधित करना प्रारम्भ किया। बहन जो सांसारिकता की निःसारता को भोग ही चुकी थी शीघ्र ही वैराग्यवती बन गई। उसने लघुभ्राता सुजान को अपने विचार बताते हुए सांसारिकता से उपरत करने का प्रयास किया। सुजान के लिए बहन की प्रेरणा काम कर गई। वह भी मुनि जीवन पाने के लिए उस्तुक हो गया। वर्षावास में पूज्य गुरुदेवो का दुर्लभ संघ लाभ मिल गया। विरक्ति की भावना बलवती होती गई। वर्षावास में पूज्य माता श्री नाथीदेवी ने भी उगम के साथ महानिष्क्रमण करने का निश्चय कर लिया। फलस्वरूप उन दोनों की दीक्षा कार्तिक मास के उत्तरार्ध में हो गई किन्तु बालक सुजान को परिजनों ने दीक्षा लेने से बलात रोक दिया। इतना ही नहीं बालक सुजान को वे लोग अहमदाबाद ले गये। भ्राता गोरीलालजी गांधी तथा बहनोई अम्बालालजी वया का वही व्यवसाय था। बालक सुजान की सारी उमंगो पर पानी फिर गया किन्तु उसने अपना साहस नहीं छोड़ा एक दिन सभी को भुलावे में रखकर बालक सुजान बिना टिकट ही ट्रेन में बैठकर फतहनगर पहुँच गया। मार्ग में पुलिस ने उसे चेक भी कर लिया कुछ कष्ठ भी दिया किन्तु एक सज्जन पुलिस अधिकारी के सहयोग से बालक सुजान खैरोदा पूज्य श्री मोतीलालजी म.सा. आदि मुनियो की सिवा में पहुँच गया। वहा रहना भी संगटपूर्ण समझ कर बालक सुजान कतिपय सहयोगी श्रावक के सहयोग से रामा श्री रतनलालजी मांडोत के घर पहुँच गया। यह पहाड़ो के बिच बसा एक विकट गाँव है। जहां उस समय पहुचना बहुत कठिन और भय पूर्ण माना जाता था। गुरुभक्त श्री रतनलालजी मांडोत ने बालक सुजान को पुत्रवत रखा, वहाँ सुजान लगभग दो मास पंद्रह दिन ठहरा और उन्ही दिनों मेवाड़ संघ शिरोमणि पूज्य गुरुदेव श्री अम्बालालजी म.सा. ठाणा ४ का कड़िया पदार्पण हुआ। वहाँ वटवृक्ष के निचे मात्र ७ भाइयो की उपस्थिति में बालक सुजान सौभाग्यमुनि बन गया। वह दिन विक्रम संवत २००६ माघ शुक्ला पूर्णिमा गुरूवार का था। ईस्वी सन के अनुसार १९५०, २ फरवरी का दिन था। दीक्षित होकर सुजान का मन मयूर नाच उठा अब सौभाग्यमुनिजी के रूप में जनता उनको नमन करने लगी क्रमशः पारिवारिक उपद्रव भी शान्त हुए।
महान पदयात्री
गुरुदेव के साथ हजारो मील की पदयात्रा कर जैन धर्म का संदेश घर-घर पहुँचाया। देखते ही देखते आप न सिर्फ मेवाड़ स्थानकवासी समाज में छा गये अपितु पुरे भारतवर्ष के स्थानकवासी समाज के उच्च संतो में आपकी गणना होने लगी। जैन समाज को आपने एक नई दिशा तथा चिंतन दिया। इसी का परिणाम था कि द्वितिय पट्टाघर आचार्य सम्राट श्री आनंदऋषिजी म.सा. ने आपको १९८७ के पूना साधु सम्मलेन में श्रमण संघ के महामंत्री पद पर नियुक्त किया। आपकी जिम्मेदारी और बढ़ गई। आपने पुरे स्थानकवासी समाज को श्रमण संघ के तहत लाने का बीड़ा उठाया और काफी सफलता मिली। सन १९८३ में आपका मुम्बई में पधारना हुआ। आपने यहाँ मेवाड़ से आकर बसे सभी स्थानकवासियों को इकठ्ठा किया तथा उन्हें श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ मेवाड़ मुम्बई नामक संस्था के तहत गठित किया। आपकी प्रेरणा से इस संस्था ने अपने कार्य के बल पर कुछ समय में आपने साधना सदनों का निर्माण किया। अनेक संत व सतियों के चातुर्मास करवाकर धर्म आराधना की। अनेक रचनात्मक कार्य आपकी प्रेरणा से होने लगे। पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के पश्चात आप ही मेवाड़ स्थानकवासी समाज के एक मात्र चमकते सूर्य है। आप एक अच्छे वक्ता, लेखक तथा कवि के रूप में जाने जाते है। आपके प्रवचनों में हमेशा अच्छी संख्या रहती है। आपका हमेशा प्रयास रहता है की मेवाड़ स्थानकवासी समाज के साथ सम्पूर्ण स्थानकवासी समाज संगठित हो एक हो तथा अखिल भारतीय श्रमण संघ के नेतृत्व में आये। श्रमण संघ को विकास उत्थान और शिखरस्त उचाईयो पर पहुचने में आपकी अहम् भूमिका रही है श्रमण संघ की एकता के लिए आप सदैव समर्पित रहे है। हाल ही में हुए श्रमण संघीय विराट साधु सम्मलेन इंदौर में आपने जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई वह शब्दातीत है। इस महा श्रम हेतु सम्पूर्ण श्रमण संघ आप पर नाज करते हुए कृतज्ञता के भाव रखता हैपारमार्थिक विचार : प्रखरवक्ता, उदभट कवी, लेखक, अदभुत नेतृत्व, क्षमता संगठन के प्रबल प्रहरी, मिलनसार,स्नेेहील,मानस व्यसनमुक्त समाज हेतु अहर्निश तत्पर, आध्यात्मिक, सामाजिक, शैक्षणिक,पारमार्थिक अनेक संस्थाओ के प्रबल प्रणेता।
अलंकरण : जिनशासन गौरव, ज्ञान सिंधु, भारत विश्रुत, मेवाड़ महानायक, शेर-ए-मेवाड़, कान्तद्रिस्टा, मेवाड़ गौरव, श्रमण संघीय महामंत्री आदि अलंकरणों से आपको चतुर्वित संघ ने नवाजा है।
विहार यात्रा : राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तमिल नाडु, कन्याकुमारी आदि।
गुरु अम्बेश की परम्परा निभाई
मेवाड़ प्रवर्तक श्री अम्बालालजी म.सा. का जन्म संवत २०६२ की जेष्ठ शुक्ला तृतीया मंगलवार सन ६ जून १९०५ को थामला में पिता श्री किशोरीलाल सोनी (ओस्तवाल जैन) एवं माता श्री प्यारबाई के यहाँ हुआ। बचपन का नाम श्री हमीरमलजी रखा गया। उसके पश्चात हमीरमलजी से श्री अम्बालालजी रखा गया। अभ्यास करने के पश्चात आपको सरकारी नौकरी प्राप्त हो गयी उसके पश्चात माता-पिता के स्वर्गवास के कारण सरकारी नौकरी छोड़नी पड़ी और भादसोड़ा में स्वयं का व्यवसाय करना पड़ा अपने छोटे भाई की सार संभाल भी आपके कंधो पर आ पड़ी थी । फिर भी आपका मन धर्म ध्यान की और अधिक रहा। आप एक बार हथियाना शादी में पधारे तो वहाँ श्री मोतीलालजी म.सा. अपने शिष्य श्री भारमलजी म.सा. के साथ वहाँ पधारे। श्री भारमलजी म., श्री अम्बालालजी के ममेरे भाई होते थे। तभी श्री अम्बालालजी से श्री मोतीलालजी म. ने कहा ममेरे क्या, सच्चे भाई बन जाओ। इस एक वाक्य ने दीक्षा की ओर आकर्षित किया। परिवार वाले दीक्षा नहीं दिलाना चाहते थे एवं श्री अम्बालालजी लेना चाहते थे। उन्हें महाराणा के चंगुल में फसाया गया। महाराणा के अलावा भी अनेक मुसीबते दीक्षा लेने में आयी। आखिर मार्गशीष शुक्ला ८ वि.सं. १९८२ को मंगलवाड़ में दीक्षा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ एवं बड़ी दीक्षा भादसोड़ा में हुई।महामंत्री पद का यशस्वी दायित्व
सादड़ी सम्मलेन में मेवाड़ सम्प्रदाय के साधू साध्वियो का प्रतिनिधित्व भी आपने ही किया था। इसके आलावा आप मंत्री पद पर रहते हुए अजमेर सम्मलेन में भी पधारे। अजमेर सम्मलेन को सफल बनाने में आपका काफी योगदान रहा। यही से आप प्रवर्तक भी कहलाने लगे। आप हिंदी, गुजराती, प्राकृत, संस्कृत, अंग्रेजी आदि भाषाओ के प्रकाण्ड विद्वान थे। आपका विहार क्षेत्र राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, मुम्बई, दिल्ली, हरियाणा, उत्तरप्रदेश आदि प्रमुख था। मेवाड़ मंत्री, मेवाड़ संघ शिरोमणि, मेवाड़ मुकुट, मेवाड़ के मूर्धन्य संत, मेवाड़ रत्न, जन-जन के श्रद्धा केंद्र आदि पदवियाँ आपको प्रदान की गयी। आप श्रमण संघ के प्रवर्तक भी थे। आपने प्रथम चातुर्मास वि.सं. १९८३ में जयपुर में एवं अन्तिम चातुर्मास वि.सं.२०५० का मावली जंक्शन में किया। आपका दी. १५-१-१९९३ को फतेहनगर (मेवाड़) में स्वर्गवास हुआ। जहां पर आपकी याद में पावन धाम बना हुआ है। जो लाखो-लाख भक्तो का श्रद्धा केंद्र है। श्रमण संघीय महामंत्री श्री सौभाग्य मुनिजी म.सा. ‘कुमुद’ आपके सुशिष्य है। मेवाड़ प्रान्त में आपका काफी प्रभाव था। आप श्रमण संघ के काफी मूर्धन्य वयोवृद्ध संत रत्न थे।
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