जीवन शैली और हमारी संस्कृति फास्ट-फूड कल्चर से फैलती जानलेवा बीमारियां :- डॉ नीरज जैनH

हम कितने शाकाहारी हैं ?आइए जानते हैं परम पूज्य आचार्य श्री रश्मिरत्न सूरीश्वरजी म. सा. के प्रशिष्य रत्न प्रभावी प्रवचनकार पंन्यास चारित्ररत्न विजयजी म.सा. की पुस्तक के माध्यम से।


जकल फास्ट-फूड आधुनिकता का पर्याय बन गए हैं और इसी आधुनिकता के चलते कब्ज, अल्सर, हृदय रोग, ब्लड प्रेशर, आँखों के रोग, बहरापन, डायबिटीज, कैंसर जैसे रोग भी बढ़ रहे हैं। पश्चिमी तरीके से तैयार फास्ट-फूड का सेवन करने वाले लोग अनजाने में रोगों को आमंत्रित कर रहे हैं। आकर्षक सुविधाजनक हर जगह उपलब्ध होने वाले फास्ट-फूड को लोगों ने जिस तेजी से अपनाया है, उतनी ही रफ्तार से लाइलाज रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है। दरअसल यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों की आड़ में बाजार में कब्जा करने के लिए खाद्य उत्पादों को घटिया तरीके से बेचना शुरू किया है।

फास्ट-फूड हमारे स्वास्थ्य के दुश्मन हैं :- आमतौर पर डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ जो बाजार में लंबे समय तक टिके रहते हैं, हानिकारक होते हैं। बिस्कुट, पेस्ट्री, नमकीन, अचार, मिठाइयां इत्यादि जिन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिए रसायनों का इस्तेमाल होता है शरीर के नाजुक अंगों को क्षति पहूंचाते हैं।

जायके के नाम पर जहर :- डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों का चलन तेजी से बढ़ रहा है। आजकल बाजारों में जैसे चटपटे, जायकेदार, व्यंजन मिलने लगे हैं, जिन्हे जब चाहे, जहाँ खोलिये और खाइये। कहीं भी, कभी भी लजीज व्यंजन के भरोसे डिब्बा बंद खाद्य पदार्थों को पश्चिमी तर्ज पर परोसा जा रहा है, जिसके चलतें भारतीय व्यंजन, फीके पड़ने लगे हैं। महंगा फास्ट फूड खरीदकर अपनी सेहत बिगाड़ने वाले लोग आधुनिकता का दंभ भरते नजर आते हैं। मगर धीरे-धीरे इनका दुष्प्रभाव शुरू होता है, तब चिकित्सकों के भरोसे वे अपने जीवन की गाड़ी घसीटने को मजबूर हो जाते हैं।

रसायनों की रंगत रोगों की संगत :- नूडल्स खाने में स्वादिष्ट इसलिए लगता है, क्योंकि इसमें मिलाया जाने वाला रंग रसायन स्वादग्राही कोशिकाओं को भ्रमित कर देता है। इस स्वाद रहित रसायन से नूडल्स अधिक समय तक तरोताजा बना रहता है। लंबे समय तक नूडल्स के सेवन से स्वादग्राही कोशिकाएं अपनी प्राकृतिक शक्ति खो देती हैं। परिणामतः भूख न लगने की बीमारी हो जाती है। स्वाद को बढ़ाने वाले और भोजन को तरोताजा रखने वाले रसायन भी घातक हैं, 'अजीनोमोटो' नामक रसायन दुकानों में सहजता से उपलब्ध है यह बासी खाद्य पदार्थों को तरोताजा बना देता है। लेकिन स्वास्थ्य के लिए खतरनाक सिद्ध होता है। शाकाहारियों को तो इससे अवश्य बचना चाहिये क्योंकि ये जैविक चर्बी से बनता है। भोजन में स्वाद को बढ़ाने वाले सेक्रीन, साइक्लोमेट, एमेसल्फ, तीनों कैंसरकारी माने गए हैं।

फास्ट फूड खाओ मोटापा बढ़ाओ :-  फास्ट-फूड में वसा और कार्बोहाइड्रेट की अधिकता और प्रोटीन नहीं के बराबर होता है। इसे स्वादिष्ट और आकर्षक बनाया जाता है, जिसे खाकर बच्चे मोटापे का शिकार हो जाते हैं। फास्ट-फूड खाने वाले बच्चों में विशेष प्रकार के ऐंजाइम की कमी भी हो जाती है, जिससे बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास रूक जाता है। लीवर खराब होने के साथ दस्त अधिक लगने लगते हैं। लौह तत्व व विटामिनों की कमी से होने वाले रोग पनप सकते हैं।

पश्चिमी देशों के बच्चों का मोटापा एक समस्या बन चुका है भारत में फास्ट-फूड लेने वाले बच्चे भी इसका शिकार हो रहे हैं। मैंने एक पत्रिका में पढ़ा है कि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) ने 2003 में दिल्ली में अमीर किशोरवय स्कूली बच्चों में मोटापा क्यों बढ़ रहा है, विषय पर सर्वेक्षण करवाया था। सर्वेक्षण में पाया गया कि दिल्ली की 23.1 फीसदी लड़कियां जरूरत से ज्यादा मोटी हैं। इनका वजन उम्र के अनुपात से अधिक पाया गया। सर्वेक्षण में पाया गया कि 64.2 फीसदी बच्चे सप्ताह में तीन से सात बार फास्ट-फूड लेते हैं। भोजन के बीच में यही उनकी पसंद का नाश्ता भी है।

पश्चिमी शैली से बने ये फास्ट फूड बच्चों द्वारा अपनाए जाने से अनेक रोग बढ़ रहे हैं। विश्व मधुमेह दिवस के अवसर पर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के इंडोक्रोइनोलॉजी के विभागाध्यक्ष डॉ. एन. कोच मिल्लई ने अपने आलेख में लिखा है कि पश्चिमी शैली के फास्ट-फूड मधुमेह के लिए जिम्मेदार हैं। मधुमेह, किडनी फेल होना, आँखों की रोशनी चले जाना, हृदय रोग आदि फास्ट-फूड के कारण बढ़ रहे हैं। साथ ही अधिकांश फास्ट-फूड किसी न किसी तरह मांसाहारी होते है। मेक्डोनाल्ड्स कंपनी मांस आधारित फास्ट-फूड परोस रही है। एक सांइटिस्ट पत्रिका के हवाले से डॉ. वंदना शिवा बताती है कि हैमवर्नर महामारी और बीमारी का सबसे बड़ा स्रोत है। फास्ट-फूड व्यंजनों को खाने से भारतीय समाज में बीमारियों में 70 फीसदी इजाफा हुआ है।

डिब्बाबंद खाना, मौत का परवाना :- डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों में जिन खतरनाक रसायनों को मिलाया जाता है, उनकी एक लंबी सूची है। खाद्य पदार्थों को ऐसे रसायन तरोताजा, सुगंधित आकर्षक बनाने का काम करते हैं। मोनो सोडियम ग्लूटामेट एक सफेद रंग का पदार्थ है जो पानी में आसानी से घुल जाता है। 1969 में वाशिंगटन विश्वविद्यालय के डॉ. जेओल ने इस पर अनुसंधान किया था। डॉ. जेओल ने अपने प्रयोग के नतीजे मे पाया था कि जब इस रसायन को इंजेक्शन द्वारा चूहों को दिया गया तो उनके मस्तिष्क की कोशिकाएं मरने लगीं और उनमें कैंसर के लक्षण पैदा होने लग गए। गिनीपिग व बंदरों पर इस तरह के प्रयोगों ने भी इसके कैंसरकारी होने की पुष्टि की थी। फास्ट-फूड में 'फ्लैवरिंग एजेंट' के रूप में मोनो सोडियम ग्लूटामेट का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। अणु जीवविज्ञानी डॉ. लुकमान अहमद खान ने अपने शोधों के जरिए बताया है कि इसके प्रभाव से बच्चों की छाती में धड़कन, दमा या लगातार चलने वाला सिरदर्द हो सकता है। इसकी अत्यधिक मात्रा दिमाग की कोशिकाओं को नुकसान पहुँचाती है, जिससे बच्चों की याददाश्त कमजोर हो जाती है। अंततः चिड़चिड़ापन,क्रोधित होने जैसे रोग बढ़ रहे हैं।

अध्ययन क्या कहते हैं ? : मैसूर स्थित 'फूड टेक्नोलॉजी रिसर्च इंस्टीट्यूट' के अध्ययन में क्रोधित होना जैसे रोग भी इनसे बढ़ रहे हैं। कहा गया कि भारत में प्रयुक्त फास्ट-फूड में डी.डी.ए., बीएचसी तथा मेलाथियान जैसे कीटनाशक रसायनों की मात्रा मानव की सहन सीमा से अधिक है। फास्ट-फूड और डिब्बाबंद खाद्य स्वास्थ्य को चौपट कर रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी देते हुए कहा है कि यदि आहार संस्कृति नहीं सुधारी गई तो सन् 2018 तक दुनिया के सभी देशों में कैंसर व अन्य घातक रोगों से ग्रस्त लोगों की संख्या बहुत ज्यादा होगी। बच्चे फास्ट-फूड की ओर ज्यादा आकर्षित हो रहे हैं। भारतीय बच्चों में डाइबिटीज ज्यादा बढ़ रही है जो जिंदगी भर के लिए पंगु बना देती है। बर्गर, फ्रेंच, फ्राईज, चाउमीन, पोटेटो चिप्स जैसे खाद्य बच्चे होड़ में खाते हैं। ऐसा खाद्य खाने वालों का जीवन स्तर भी समाज में ऊँचा समझा जाता है। दरअसल इनमें विटामिन सी, आयरन फोलेट और रिबोप्लोविन की कमी होती है, क्रीम होने से कैलोरी, वसा और सोडियम की मात्रा अधिक होती है। शरीर के लिए जो पोषक तत्त्व होना चाहिए वे नही होते और नतीजे में इससे पाचन तंत्र कमजोर होता है। महंगा फास्ट फूड खाकर शरीर को रोगों का घर बनाना समझदारी नहीं है फास्ट फूड बच्चों का आहार कभी न बने, अन्यथा उनका भविष्य चौपट हो सकता है। इसका ध्यान जरूर रखना चाहिए।

देशज स्थिति विरूद्ध है ये आहार :- कुल मिलाकर ये आहार भारतीय मौसम, परिस्थिति और संस्कृति के भी विपरीत है। हमारे यहाँ, उष्ण-आर्द्र मौसम रहता है। इस मौसम में प्राकृतिक, सुपाच्य और स्वाभाविक स्वाद वाली देशज वस्तुएं ही आहार की जानी चाहिये, लेकिन मैं देख रहा हूँ एक तरफ कुपोषण का शिकार बच्चे हैं तो दूसरी तरफ फास्टफूड से बीमार बच्चे हैं। अतः भविष्य में देश का नागरिक कैसा होगा? विचार करना चाहिए।

क्या कहती है जैन दृष्टिः मेरे मत में जैन दर्शन ने इस आधुनिक स्थिति को पहले ही पढ़ लिया था। तभी तो 'भगवती आराधना ग्रंथ' में लिखा है कि-

होई णरो णिल्लज्जो पयहइ तवणाण दंसणं चरित्तं । आमिस कलिणा ठइओ छायं मइलेइ य कुलस्स ।।

अर्थात जब आहार मर्यादा खोकर मनुष्य निर्लज्ज हो जाता है तब तप, ज्ञान, दर्शन और चरित्र की मर्यादा भी तोड़ देता है। ऐसा निर्लज्ज कुल की लाज भी गंवा बैठता है। शायद हम भारतीय भी विदेशियों की देखा-देखी भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार भूलकर चाहे जो खाने को तत्पर होकर अपने राष्ट्रीय कुल, अपने सांस्कृतिक वैभव पर कलंक लगा रहे हैं। हमें इससे उबरकर स्वयं को और अपनी भावी पीढ़ी को बचाना चाहिये। इन्हीं विचारों के साथ जयजिनेन्द्र।

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