मैं कुछ हूँ व्यक्तित्व मोह हैं

 वैरागी कौन?


आचार्य सम्राट पूज्य श्री शिवमुनि जी म.सा.

  ये संसार अनादिकाल से चल रहा है. हमेशा चलता रहेगा। इसे कोई समाप्त कर नहीं सकता। केवलियों ने अपने ज्ञान में देखा इस संसार किन आदि है, न अन्त है किन्तु जिस व्यक्ति को सत्य का बोध हो जाए, वह सत्य पर श्रद्धा कर ले। सत्य में जीने का संकल्प कर ले और सत्य में जीने लग जाए तो वह अपने संसार का अंत कर सकता है।

प्रश्न होता है कि संसार क्या है? जहाँ जीव जन्म-मरण के आवर्त में पड़कर मिथ्यात्व व मोह के कारण चार गति चौरासी लाख जीवायोनि में भ्रमण करता है और संसार में सुख को खोजता रहता है। संसार का प्रत्येक जीव सुख चाहता है, दुःख सबको प्रतिकूल लगता है। व्यक्ति जहाँ सुख है, वहाँ नहीं खोजता जहाँ सुख नहीं है, वहाँ सुख खोजता है और उसे ऐसे मार्गदर्शक मिलते है जो उसे असत्य का मार्ग दिखाते है।

जे ते यू वायो और, ना ते संसार परगा 1/1/1/21 श्री सूत्रक्रुतंग सूत्र :-

जो असत्य की प्ररूपणा करते हैं, वे संसार सागर को पार नहीं कर सकते। ऐसे मार्गदर्शक पंचमकाल में आपको चारों और मिलेंगे जो असत्य की प्ररूपणा कर रहे है, जो व्यक्ति, वस्तु, स्थान में सुख ढूंढ़ने को कह रहे है। मंत्र, तंत्र, यंत्रो की साधना से सुखी होने का मार्ग बता रहे है। व्यक्ति के लिए सम्बन्धों को मधुर बनाने की शिक्षा देते है। वस्तु को प्राप्त करके सुखी होना चाहते है और सुख स्थान विशेष में है इसलिए वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर सुख पाने के लिए घुमते रहते हैं।

कहा भी है असंकियाई संकति, संकिआई, असकिओ 1/1/2/20 श्री सूत्रकृतांग सूत्र मोह मूह मनुष्य जहां वस्तुतः भय की आशंका है, वहां तो भय की आशंका करते नहीं है और जहाँ भय की आशंका जैसा कुछ नहीं है, वहाँ भय को आशंका करते है। उस सुख के मोह में आकर जहाँ शंका करनी चाहिए वहाँ शंका नहीं करते और संसार मेंपरिभ्रमण करते रहते हैं और शुद्ध वीतराग धर्म की आराधना में शंका करते हैं, क्रियाओं में धर्म मानते हैं, कर्त्ता भोक्ता बनते हैं। विभाव में जाकर पुद्गलों में सुख ढूंढ़ते है। पुद्गलों का ध्यान अर्थात् आर्त-रौद्र ध्यान करते है।

इस परिभ्रमण को मिटाने के लिए साधक को त्याग करना होगा। मिथ्यात्व का मोह का मिथ्यात्व है 'मैं कुछ हूँ' व्यक्तित्व मोह है, मेरा मेरा जितना भी मेरे पन का फैलाव है वह मोह है, जब वह इसका त्याग करेगा तो उसको वैराग्य होगा। वैरागी कौन? वैरागी वहीं है जिसे ये बोध हो गया 'मैं सिद्ध भगवान जैसा समृद्ध सम्पन्न परिपूर्ण जीव हूँ। मुझे इस जगत से कुछ नहीं चाहिए, मेरी कोई इच्छा नहीं है, मेरी कोई आवश्यकता नहीं है। मैं अपने आप में सम्पन्न हूँ, परिपूर्ण हूँ, अष्ठ गुणों से युक्त हूँ। अनंत ज्ञान जिसे सत्य का बोध हो गया, मेरे भीतर केवल ज्ञान है 'में इसे निज में स्थित होकर प्रकट कर सकता हूँ।अनंत दर्शन सब में वहाँ जीव है जो मुझमें है। वह अपने समान सबमें आत्मा के दर्शन करता

अनंत सुख सुख जाँव में है. शाश्वत सुख पुद्गलों में नहीं है, वह तो शरीर की साता है, दुःख असाता है। साता-असाता से पार शाश्वत सुख मुझम है यह अनुभव हो जाता है। ऐसे अष्ठ गुणों की सम्पदा वाला साधक वैरागी है। वैराग्य वर्ष में हम सब अन्तःकरण से वैरागी बनेंगे तो निश्चित एक दिन वीतरागी भी बनेगें। आपकी संसार यात्रा सीमित हो, वीतराग पथ के पथिक बने, यही मंगल भावना।

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