गुरु भक्ति का बदलता स्वरूप

 शुकराना किसका और क्यो?

(पढ़े-सोचे-विचारे)

 


-अनु दीपक जैन,जयपुर  (एडमिन,वल्लभ वाटिका)

ज अंजू फटाफट अपने कार्यो को निपटाने में व्यस्त थी।आज उसकी सहेली के घर बहुत समय बाद भजन संध्या थी। अंजू को वैसे भी परमात्मा भक्ति की चाह रहती थी और आज तो इतने समय बाद अवसर आया था जल्दी से समय पर उसके घर पहुंच गई।पर वहाँ का माहौल कुछ अजीब सा महसूस हुआ। यूं तो भक्ति संध्या का आयोजन परंतु न तो परमात्मा की कोई फोटो,न ही कोई जैन शासन की परंपराएं। और ये क्या-जैसे ही भक्ति शुरू हुई,परमात्मा के स्थान पर किन्ही गृहस्थ गुरु का गुणगान,परमात्मा के जयकारो के स्थान पर केवल  गुरु का जयकारा।

ये कैसी भक्ति,ये कैसी श्रद्धा,ये कैसा परिवर्तन,इन विचारों में खोई अंजू निराश हो घर की ओर वापिस चल दी। आज मन में एक बवंडर सा महसूस हो रहा था। याद आये बचपन के वो पल,वो भजन जो दादा जी गाया करते थे।

 गुरु आत्म ये बतला गए,सानू भूल्या नु रस्ते पा गए

याद आने लगी वो कहानियां कि किस प्रकार हमारे आराध्य गुरु आत्म ने प्रभु पूजा और प्रभु भक्ति से जोड़ने,जन जन में जिनेश्वर परमात्मा के प्रति प्रेम और श्रद्धा को जगाने के लिए अभिग्रह किये। इस हेतु उनको कितने ही परिषह सहन करने पड़े,कितनी ही तकलीफे उठानी पड़ी पर वो विचलित नही हुए।

बस एक ही लक्ष्य ले आगे बढ़ते रहे और बताते रहे कि "प्रभु पूजन करो,प्रेम से सारे" 

गुरुदेव को मूर्ति एवं प्रभु पूजन को सिद्ध करने हेतु चाहे कितने ही शास्त्रार्थ करने पड़े,चाहे कितने संघर्ष करने पढ़े यहाँ तक कि लोगो ने विरोध स्वरूप गोचरी तक नही दी,उनका विरोध किया परंतु वो तो जैसे चट्टान समान अडिग हो आगे बढे ,क्या रहे होंगे वो पल जब 17 साधु को गोचरी हेतु मात्र एक कटोरा लस्सी का ही मिल पाया।

          क्या गुरु आत्म ने वो कठिनाईयां खुद के लिए सहन की थी?

 क्या उनके अभिग्रह उनके स्वयं के लिए थे?

 क्या उन्होंने हर शास्त्रार्थ का सामना निज हित के लिए किया था?

क्या इतनी कम आयु में इतना संघर्ष उनके स्वयं के लिये था?

नही,नही,नही

उन गुरु आत्म ने इतने परिषह हम सबको धर्म का मार्ग समझाने हेतु सहन किये थे। उन्होंने स्वयं हित,स्वयं सुख को आने वाली पीढ़ियों को सुंस्कारो से,उन्हें प्रभु से जोड़ने हेतु त्याग दिए । यहाँ तक कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जगह जगह जिन मंदिरों का निर्माण करवा कर गुरु वल्लभ को श्रावक तैयार करने की जिम्मेदारी दी और गुरु वल्लभ ने भी गुरु आज्ञा हेतु मानो अपना जीवन ही कुर्बान कर दिया।

याद करे वो दिल्ली चातुर्मास से पूर्व जेठ माह की गर्मी में शास्त्रार्थ हेतु बिनोली से गुजरांवाला का उग्र विहार-न तो उनको पाँवो के छाले रोक पाए न सख्त गर्मी।बस एक लक्ष्य था कि प्रभु पूजा की सार्थकता को सिध्द करना है क्योंकि यही हमारा आधार था।

पर समय की विडंबना देख आज आंखे नम हो रही है कि जिन गुरुओं ने हमारे लिए अपने सुखों को,अपने जीवन को दांव पर लगा दिया,हम उनको तो खूब याद कर लेते है लेकिन उनके बताए मार्ग से विमुख हुए जा रहे है। प्रभु से विमुख तो हो ही रहे है साथ अपने जैनत्व के संस्कारों को भी भूलते जा रहे है। जिन सिद्धांतो को पूरे विश्व में पहुंचाने हेतु गुरु आत्म ने वीरचन्द राघव गांधी जैसे श्रावकों को तैयार किया और विदेशी भूमि पर जैनत्व का परचम फहराया ,आज हम आडंबरों में उलझ कर उन सिद्धांतो को ही भूल गए है।

वल्लभ सूरिजी ने शांतिनाथ परमात्मा के स्तवन में लिखा है -

" *मिला मैं नाथ गैरों से , गवाया नूर मैं अपना*"

मेरे जो सद्गुरु थे, उनको छोड़कर मैंने अन्य गृहस्थों को गुरु बना लिया। हे प्रभु, मैं कांच को शीशा मान रहा हूँ! मुझ जैसे अधम और कौन होगा।

सच में,वर्तमान में यही स्थिति हमारे जैन श्रावकों की हो रही है। आज हमारे आराध्य गुरु की आत्मा भी ये सब देख कही न कही अशांत हो रही होगी।

परंतु इसके सुधार की जिम्मेदारी भी हमारी ही है,अगर आज हम नही जागे तो भविष्य हमको माफ़ नही कर पायेगा। जो माता पिता करेंगे,वही संस्कार कही न कही बच्चो में परिलक्षित होंगे ही।

गुरु आत्म ने कितने भावों से परिपूर्ण स्तवनो की रचना की।

प्रभु पूजन की विभिन्न पूजाओं का खजाना हमको दिया।

गुरु वल्लभ द्वारा रचित स्तवन मानो हृदय को छू लेते है।

गुरु ने तो धर्म से जोड़ने हेतु बहुत कुछ दिया हमको परंतु उनको जीवन में हमको ही उतारना होगा। जैनत्व के संस्कारों का अपनी पीढ़ियों में सिंचन हमको ही करना होगा।

 नए नए फिल्मी गानों पर बने भजनों की जगह फिर से गुरु आत्म वल्लभ के स्तवनो को गुनगुनाना होगा।

 बच्चो को प्रतिदिन प्रभु पूजन,प्रभु दर्शन हेतु हमको ही प्रेरित करना होगा।

गुरु आत्म का साहित्य ऑनलाइन भी उपलब्ध है एवं उसका पुनः प्रकाशन भी हुआ है,हमको अपने घरों में फिर से उस साहित्य को जगह देनी होगी।

 अपने वडिलों से मिली श्रद्धा को इतना दृढ़ करना होगा कि कोई चमत्कार इसे हिला न सके। हमें चमत्कार को नमस्कार नहीं करना, संयम को नमस्कार करना है ।

 गुरुदेव द्वारा बताए गए मार्ग पर स्वयं तो चलना ही है अन्य को भी जोड़ना होगा।

हम ये नही देखे कि दूसरे ने क्या किया-हम ये विचार करे कि हमने कितना और क्या किया।

हमको ये याद रखना होगा कि जिन गुरु आत्म ने हम भूलो को रस्ते डाल दिया,कही उन आत्म वल्लभ को हम ही तो नही भूल रहे।

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः

परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।

उपरोक्त श्लोक में अपने धर्म की श्रेष्ठता को स्वीकार करने की बहुत सुंदर बात कही गयी है कि हर परिस्थिति में स्वधर्म ही श्रेष्ठ है। एक कोशिश करे- स्वयं और स्वयं के परिवार,मित्र वर्ग को फिर से अपने  जैनत्व के श्रेष्ठतम संस्कारों से रूबरू करवाने की।

यही अपने आराध्य गुरु के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

 

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