जिनशासन रत्न आचार्य विजयानंद सूरीश्वरजी (आत्मारामजी) म.सा.
जिनशासन रत्न आचार्य विजयानंद सूरीश्वरजी (आत्मारामजी) म.सा.
जन्मदिन पर विशेष
महान कवि और लेखक होने के साथ-साथ आप (श्री विजयानंद सूरि जी ) एक श्रेष्ठ संगीतज्ञ भी थे। श्री काँति विजय जी महाराज ने अपनी अप्रकाशित हस्तलिखित डायरी में लिखा है, "श्री आत्माराम जी स्वभावतः बहुत ही आनंद प्रिय पुरुष थे। कई बार अत्यंत निर्दोष आनन्द करते। कभी-कभी शास्त्रीय राग-रागनियां गाकर स्वर व लय समझाते।" आपको स्वयं गाने का बहुत चाव था। इससे भी अधिक उनकी यह अभिलाषा रहती थी कि वे दूसरे अच्छे गायकों का गायन सुनें। उनका स्वर मधुर था और ध्वनि मीठी। जब वे धर्मोपदेश देते थे, उस समय भैरवी की लय का ज़ोर होता था । श्रोता सुनकर आनंद का बारम्बार अनुभव करते और आपके गीत सुनने के लिए लालायित रहते ।
एक बार श्री आत्माराज जी महाराज आवश्यक क्रिया से निवृत होकर प्रसन्नतापूर्वक वार्तालाप कर रहे थे। अनुकूल अवसर देखकर एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि "महाराज श्री उत्तराध्ययन सूत्र में त्रिताल ध्रुपद राग में गाये जाने योग्य एक अध्ययन है, उसे कैसे गाना चाहिए? जिस समय यह बात हो रही थी, उसी समय एक संगीत विशेषज्ञ, आचार्य श्री का नाम सुनकर वहां आया। उसे देखकर महाराज श्री ने उत्तर दिया। “भाई संगीत के उस्ताद आ गए हैं, इनसे पूछो। ये प्रसिद्ध गायक हैं, गाकर सुनाएँगे। " आदेश मिलते ही उस संगीतज्ञ ने गाना प्रारंभ कर दिया। उसने गाने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी, परन्तु ताल में त्रुटि होने के कारण रस न आया। अब महाराज श्री से प्रार्थना की गई। वे कुशल संगीतज्ञ थे ही। उस्ताद ने भी गुरुदेव से निवेदन किया। आचार्य श्री जी ने गाना प्रारंभ किया। जैसे ही उनके मुखारविंद से शब्द प्रस्फुटित हुए, श्रोताओं को मेघ अथवा समुद्र गर्जना की शंका होने लगी। पूरा गीत (ध्रुवपद राग ) सुनने के बाद उस्ताद चिल्ला उठा- "महाराज श्री आपने ऐसे संगीत का अध्ययन कहां किया था? मैं तो आपके पास अपना कौशल प्रदर्शित करने आया था, परन्तु आपका मधुर स्वर, गंभीर ध्वनि और तालबद्ध गीत श्रवण कर मैं विस्मय में पड़ गया हूँ। महाराज मुझे क्षमा करें। आप तो संगीत कला के पारगामी हैं। आप तो उस्तादों के उस्ताद हो।"
स्वर्गीय श्री मोतीचंद गिरधारीलाल कापड़िया ने श्री आत्माराम जी के काव्य के विषय में लिखा है, - "उनके जो थोड़े से पद प्रकाश में आए हैं, उन पर विचार करने से उनकी असाधारण वाक्य रचना शक्ति, मधुरता और स्वाभाविकता का ज्ञान होता है। उनका प्रत्येक पद्य, शब्द चित्र तथा अन्तरोदगार का नमूना है, भाव से पूर्ण है, प्रेरणा से ओतप्रोत है और आत्मिक प्रगति का दर्शक है।"
पूजा स्तवनों में प्रायः लोक प्रचलित राग-रागनियों के दर्शन होते हैं। पीलू, आसावरी, मल्हार और रसीली रागनियों में ही प्रभु भक्ति के स्तवनों को पूज्य आचार्य श्री ने बड़ी कुशलता से बाँधा है। गुजराती राग, पंजाबी ठुमरी, कहरवा, ताल- दीपचंदी, योगी, खमाज और कलिंगड़ आदि आपके मन भावन राग है।
डा. रेणु गुप्ता, Ph.D.
प्रोफेसर, संगीत विभाग, आत्मानंद जैन कॉलेज, अंबाला शहर
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें