प्रथम दिवस--अरिहंत परमात्मा की भक्ति वाले स्वरुप

 नवपद साधना

आज से ओलिजी प्रारंभ

गच्छाधिपति नित्यानंद सूरीश्वरजी


मारे मन पर भी समय का, ऋतु का, काल का प्रभाव पड़ता है, इसलिए अध्यात्म साधना में समय का अपना महत्व है। भारतीय ऋतु चक्र के अनुसार चैत्र और आसोज का महीना सबसे श्रेष्ठ व आरोग्यदायी माना गया है और इसमें भी शुक्ल पक्ष सबसे अनुकूल और आरोग्यप्रद,मन को प्रसन्नता देने वाला होता है।

   इन दोनों मास के शुक्ल पक्ष में प्रथम नौ दिन नवरात्रि कहलाते हैं। इन नौ दिनों में व्रत,तप,जप,भक्ति, सेवा,सत्संकल्प और पवित्र विचारों के द्वारा आत्मा के भीतर शक्ति का जागरण/उद्दीपन करने के लिए नवरात्र की उपासना का विधान है।

   जैन परम्परा शुद्ध अध्यात्मवादी और अहिंसा प्रधान है। उसमें राक्षसों का नाश, दैत्यों का दमन जैसी कोई कहानी नहीं है। वहां तो स्पष्ट रुप से मनुष्य की अन्तरवृतियों के शोधन,परिष्करण और परिवर्तन का विधान है। जैन परम्परा की साधना विधि पूर्णतः आत्मलक्षी है।आत्मा पर विजय करने की विधि है। नवपद की आराधना का यह ओली तप शाश्र्वत है, अनादिकाल से है।इस अवसर्पिणी काल में अनेकानेक अगणित साधकों ने इसकी आराधना साधना की है,कर रहे हैं, करते रहेंगे। उनमें श्रीपाल- मैना सुंदरी भी एक विशिष्ट साधक थे। उन्होंने अत्यंत तन्मय, तल्लीनता से एक रस होकर इस तप की आराधना की और उनको विशिष्ट लाभ प्राप्त हुआ। श्रीपाल का वर्षों पुराना कुष्ठ रोग मिट गया।

   धर्म साधना के क्षेत्र में यह नियम है कि आप शुद्ध मन से जप-तप, आराधना-उपासना करते हैं तो आपके अशुभ कर्म क्षीण होंगे,अशातावेदनीय दूर होंगे,पापकर्म दूर होंगे, पुण्य का उदय होगा।यह ओली तप एक शाश्वत परम्परा है और इसका शुभ फल निश्चित होगा यह विश्वास रख कर आज प्रथम दिन अरिहंत भगवान की आराधना उपासना करें।

  नवपद के क्रम में पहले दो पद है देव तत्त्व के-अरिहंत और सिद्ध।जैन दर्शन में दो नय माने गए हैं--निश्चय और व्यवहार। निश्चय से देखें तो सिद्ध भगवान बड़े हैं क्यों कि वे ही सबकी साधना का अंतिम साध्य है। अरिहंत देव भी अयोगी गुणस्थान प्राप्त कर शरीर मुक्त हो कर सिद्धशिला पर विराजमान होते हैं।

   दूसरी बात अरिहंत देव भी दीक्षा लेते समय तथा केवलज्ञान प्राप्त कर समवशरण में विराजमान होते समय सर्व प्रथम नमो सिद्धाणं कहते हैं।सिद्धाणं नमो किच्चा-सिद्ध भगवान को नमस्कार कर देशना देते हैं। इस दृष्टि से भी सिद्ध भगवान बड़े हैं। सिद्ध भगवान शरीरमुक्त है इसलिए वे हमें किसी भी प्रकार का उपदेश नहीं देते हैं। अरिहंत देव सशरीरी है इसलिए वे हमारे आलंबन है,परम सहायक है।वे तिन्नाणं तारयाणं है,वे ही चक्कदयाणं मग्गदयाणं शरणदयाणं है। अरिहंतो वाले सिद्धों के केवलज्ञान में कोई अंतर नहीं है। दोनों का ही परम निर्मल ज्ञान है। हमारा लक्ष्य अरिहंत बनना यानि वीतराग बनना। वीतराग बनेंगे तो सिद्ध तो बन ही जायेंगे, वीतरागता सिद्ध बनने की शत-प्रतिशत गारंटी है।

   मंत्र शास्त्रों में "अर्हम"शब्द को समस्त मंत्रो का राजा बताया गया है।मंत्र शास्त्र के आचार्य ने बताया है कि अर्हम में आदि में "अ" अक्षर, मध्य में "र" और अंत में "ह"। "अ"वर्णमाला का आदि अक्षर हैं जिसे बीजमंत्र भी कह सकते हैं।दूसरा मध्य का "र"अग्नि बीज है और तीसरा "ह"महाप्रयाण ध्वनि है। अरिहंत शब्द का अर्थ है शत्रुओं को जीतने वाला या नष्ट करने वाला।अष्ट कर्म-राग,द्वेष,कषाय,मोह आदि जीव के मुख्य शत्रु है। जैन दर्शन मानता है कि कोई भी आत्मा परमात्मा अरिहंत बन सकता है। सभी अरिहंत तीर्थंकर नहीं होते हैं जो तीर्थंकर होते हैं वो अरिहंत तो होते ही हैं। तीर्थंकर भगवान केवल ज्ञान प्राप्त होने पर धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं, उनके संघ में हजारों केवली,मनपर्यव ज्ञानी होते हैं।एक अवसर्पिणी काल में २४ से अधिक तीर्थंकर नहीं होते हैं जबकि केवली होने की क़ोई सीमा नहीं है।

   अरिहंत के दो रुप है--

१.रागद्वेष मुक्त वीतराग आत्मा, जिनके चार घनघाती कर्म क्षय हो जाने से अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन आदि अनन्त चतुष्टय प्रकट हुए हैं।

२.तीर्थकर अरिहंत-- अरिहंतो का दूसरा विशिष्ट स्वरुप, आवश्यक सूत्र शक्रस्तव में अरिहंत भगवान को नमस्कार किया गया है जिसमें नमोत्थुआणं अरिहंताणं भगवताणं आइगराणं तित्थयरायणं.... आदि विशेषण हैं।ये विशेषण तीर्थंकर अरिहंत के ही हैं।इन अरिहंतो के १२ विशिष्ट गुण,अष्ट महाप्रतिहार्य, ३४ अतिशय, ३५ वचनातिशय आदि होते हैं।

    आज तक आपको परमात्मा के दर्शन नहीं हुए क्योंकि आपने आत्मा के दर्शन नहीं किए,स्वदर्शन के बिना सब क्रियाएं,सब पूजा पाठ केवल प्रर्दशन है। साधना का रस पीया था पेथड शा ने। प्रभु भक्ति का सच्चा आनंद लिया, आराधना/उपासना सफल की, अपने भीतर परमात्मा का दर्शन किया था।

आराधना विधी-----

आज अरिहंत पद के साथ श्वेत वर्ण की कल्पना करने के साथ चावल यानि श्वेत धान्य का आयंबिल करना है।प्रभु के समक्ष चावल के १२ स्वस्तिक बनाने है।उन पर एक एक स्वस्तिक पर प्रभु के एक एक गुण,इस प्रकार बारह गुणों की जीवन में अवतारणा हो,ऐसी भावना करना।

1.आज का मंत्र- ऊं ह्लीं नमो अरिहंताणं

2.बीस माला

3.कायोत्सर्ग में 12 लोगस्स का ध्यान

4.12 प्रदक्षिणा

5.12 खमासणा


संपूर्ण प्रस्तुति......

आचार्य श्री विजय नित्यानंद सूरी जी महाराज साहब द्वारा "नवपद पूजे शिवपद पावे" पुस्तक में दिए प्रवचनों से साभार....

  जय कोचर, विजयवाड़ा.......

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