साधु- जंगम कल्पवृक्ष है :-

 नवपद साधना - पंचम दिवस

गच्छाधिपति नित्यानंद सूरीश्वरजी


जिन्होंने संयम की शुद्ध निर्मल साधना की है,दया और दम से जिनका हृदय नवनीत सा कोमल है, समिति और गुप्ति जिनका मन सदा समाहित है, समाधियुक्त है और आत्मिक आनंद में सदा रमण करते हैं उन साधु महाराज के चरणों में हमारा नमस्कार है। संसार में कुछ अद्भुत वस्तुओं की कल्पना की है जैसे- अमृत, कल्पवृक्ष, कामधेनु,कामकुंभ, चिंतामणि रत्न और पारस पत्थर। इन सभी के फल को किसी ने अनुभव किया हो ऐसे दृष्टांत सिर्फ सुनने और पढ़ने में ही आता है।

आचार्य श्री मलयगिरी कहते हैं- धरती पर एक जीता जागता कल्पवृक्ष है, उसे मैंने भी देखा है, आपने भी देखा है,उसका चमत्कार हमने अनुभव किया है,उस वृक्ष के पास रहने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।उस कल्पवृक्ष का नाम है साधु। पारलौकिक सुख, मानसिक तृप्ति और आध्यात्मिक सुख पाना हो तो त्यागी साधुओं की संगत जरुरी है। योगिराज आनंदघन जी को ध्यान- तपस्या आदि से ऐसी ऐसी दुर्लभ सिद्धियां प्राप्त हुई जिनके सामने भौतिक सिद्धियां तुच्छ थी, जिनके मल-मूत्र ही रसायन थे और वो ही सोने रुपी रसायन बन कर शरीर में विद्यमान थे। आचार्य पादलिप्त सूरी विद्यासिद्ध साधक थे,आकाशगामिनी विद्या के धारक थे और उन्होंने प्रसिद्ध रसायन शास्त्री नागार्जुन के अहंकार को चूर चूर किया था। आचार्य श्री का प्रसवण( पेशाब) ही सोने का रसायन था। साधु की संगति मूल्यवान होती है। तुलसी दास जी के शब्दों में- एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध। तुलसी संगति साधु की हरे कोटि अपराध।।

सिद्ध चक्र यंत्र की आराधना के क्रम में हम नवपद की आराधना कर रहे हैं और आज इस क्रम में पांचवें पद की आराधना है। पांचवां पद है- नमो लोए सव्वसाहूणं.. लोक के समस्त साधुओं को हमारा नमस्कार है। साधु धर्म का मूर्तिमंत रुप है। सबसे बड़ी बात देखिए, पांच पद में चार पद इधर है और चार पद उधर। दोनों के मध्य संतुलन बनाने वाला केन्द्र है।दो देव तत्त्व और दो गुरु तत्व यानि चार एक तरफ और चार धर्म तत्त्व दूसरी तरफ। साधु जिनागम रुपी मंदिर की नींव है। भगवान महावीर ने कहा था कि जब तक साधु- साध्वी अपने शुद्ध आचार विचार में रहेंगे तब तक जिनशासन अखण्ड रुप से चलता रहेगा। परमात्मा महावीर सबसे पहले संसार का त्याग करके साधु ही बने थे,साधु से अरिहंत बने।यह एक शाश्वत सत्य है कि मनुष्य ही नियम- व्रत- त्याग- तप- संयम ग्रहण करता है, देवता इन सभी से वंचित है।प्रभु की वाणी को मनुष्य ही ग्रहण कर सकता है, देवता चौथे गुणस्थान तक ही रहते हैं और मनुष्य पहले से चौदहवें गुण स्थान तक का आरोहण कर सकता है। मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो समस्त संसार की चौरासी लाख जीव योनियों में जा सकता है।

तलवार की धार पर चलना दुष्कर है उसी प्रकार संयम के पथ पर चलना कठिन है।आगमो में साधु के अनेक नाम बताए गए हैं और साधु शब्द की सारगर्भित व्याख्याएं की गई है। दशवैकालिक सूत्र में आचार्य हरिभद्र सूरी की टीका- सम्यकदर्शनादि यौगेरपवर्ग साधयतीति साधु: अर्थात जो सम्यक दर्शन,ज्ञान योग द्वारा मोक्ष की साधना करता है वह साधु। गुरु नानक देव के शब्दों में- राजा और गरीब को समझो एक समान।तिनको साधु कहत है गुरु नानक निरवान।। कबीर दास जी के शब्दों में- गांठ दाम बांधे नहीं नहि नारी से नेह।कहे कबीर वा साधु के हम चरनन की खेह। आगमो में साधु के अनेक नाम बताए गए हैं जिनमें प्रसिद्ध नाम है मुनि।मुनि का अर्थ है- मनन करने वाला ज्ञानी।सतत ज्ञान की आराधना करने से ही उसे मुनि कहा जाता है। मन-वचन-काया पर संयम रखना ही मुनि की पहचान है। गीता में कहा गया है- वीतराग- भय क्रोध: स्थितधी: मुनिरुच्येत। जिसने राग-द्वेष- भय- क्रोध को जीत लिया है और जिसकी बुद्धि स्थिर है,मन शांत है- उसे मुनि कहा गया है।

साधु का दूसरा नाम है श्रमण।जो रात-दिन ज्ञान- ध्यान, तप-सेवा- परोपकार में श्रम करता है उसे श्रमण कहा गया है।साधु को अणगार भी कहा जाता है।अणगार का अर्थ है गृह का त्याग करने वाला, जहां पर भी आश्रय मिले वहां ठहर कर अपनी तपस्या व ध्यान करें उसे अणगार कहते हैं। अहंकार और ममकार के दोनों बंधनों से मुक्त हो गया वह है अणगार। भगवान महावीर स्वामी ने दीक्षा लेते ही घर का, राजमहल का त्याग कर दिया था।वे जंगलों में वृक्षों के नीचे,खण्डहरो में, गुफाओं में,श्मशान के पास भयानक वनों में और यक्षो के यक्षायतनो में जाकर ध्यान करते थे।यह है उनका अणगारत्व।औपपातिक सूत्र में अणगारो की २१ उपमाएं दी गई है। भगवान महावीर के शिष्य कितने पवित्र आचार- विचार और निर्मल मन वाले थे यह इन उपमाओं से स्पष्ट होता है। 

मुनि को भिक्षु भी कहा जाता है।भिक्षु का अर्थ है भय का,मोह का भेदन करने वाला- भयं इक्खतीति भिक्खु। आचार्य श्री भद्रबाहू के शब्दों में- जो भिदेइ खुहं खलु सो भिक्खु।साधु का एक नाम निग्रन्थ है।ग्रंथ का अर्थ है गांठ। जिसके मन में कषायो की गांठ, ममता की गांठ और मिथ्यात्व की गांठ नहीं है उसे निग्रन्थ कहा गया है।साधु के तेजोवलय या आभामंडल का प्रभाव ही ऐसा होता है कि जहां जिस क्षैत्र में विराजमान होते हैं, विचरण करते हैं वहां सुख- आंनद- शांति व्याप्त रहती है।जीवाभिगम सूत्र में भगवान महावीर और गौतम स्वामी के संवाद का वर्णन है जिसमें साधु की उपस्थिति के कारण समुद्र भी अपनी मर्यादा में रहता बताया गया है। सिकंदर और अरस्तु के आपसी संवाद में साधु की महत्ता प्रकट होती है।आगमो में साधु के २७ गुणों की चर्चा है।समवायांग सूत्र में साधु के २७ गुण इस प्रकार बताए गए हैं- ५ महाव्रत.६-१०. ५ इन्द्रियो का निग्रह ११-१४. ४ कषाय को जीतने वाला १५. भाव सत्य १६. करण सत्य १७. योग स्तरीय १८. क्षमाशील १९. वैराग्यवान २०. मनसमाधारणता २१. वचन समधारणता २२. काम समधारणता २३-२५. ज्ञान- दर्शन- चारित्र संपन्न २६. वेदना को समभाव पूर्वक सहन करने वाला २७. मृत्यु के समय निर्भय रह कर समतापूर्वक समाधि मृत्यु प्राप्त करें। साधु का जीवन अगणित गुणों का भंडार है।याद करो मुनि गजसुकुमाल को,अवन्तीसुकुमाल को,स्कन्धक मुनि, अर्जुनमालि,अइमत्ता बाल मुनि,धर्मरुचि अणगार और मुनि मेघकुमार को। गुणों के मूर्तिमंत स्वरुप इन मुनिवरो का चरित्र हमें आज भी प्रेरणा देता है। इनका पवित्र चरित्र हृदय में उतारें तो हमारी यह आराधना अवश्य ही सफल होगी.......

आराधना विधी...

आज पांचवें मुनि पद की पूजा आराधना का मंत्र है- ऊं ह्लीं नमो नमो ल़ोए सव्वसाहूणं.लोक के समस्त मुनियों को मेरा नमस्कार है। इस पद की २० माला फेरें। साधु जी के २७ गुणों का स्मरण करके २७ लोगस्स का काऊस्सग करना है।२७ खमासणा और २७ प्रदक्षिणा के साथ आज उड़द के धान्य से आयंबिल करना है। साधु पद का वर्ण काला यानि श्याम वर्ण है अतः साधु जी का ध्यान करते समय कृष्ण वर्ण का कवच अपने चारों तरफ देखें....

संपूर्ण प्रस्तुति... 

गच्छाधिपति चार्य श्री विजय नित्यानंद सूरीश्वरजी म. सा. द्वारा " नवपद पूजे शिवपद पावे" पुस्तक से साभार...   

   जय कोचर, विजयवाड़ा.

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