राष्ट्रभाषा हिंदी और मातृभाषा में शिक्षा समय की मांग :- मुनि श्री अक्षयसागर

14 सितंबर, हिन्दी दिवस पर विशेष

हिन्दी जन -जन की भाषा 


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ष्ट्रीय हिंदी दिवस का इतिहास 14 सितंबर, 1949 से शुरू होता है। इस दिन, भारत की संविधान सभा ने देवनागरी लिपि को आधिकारिक भाषाओं में से एक के रूप में अपनाने का ऐतिहासिक निर्णय लिया था। हिंदी दिवस को मनाने के पीछे एक कारण यह है कि देश में अंग्रेजी भाषा के बढ़ते चलन और हिंदी की उपेक्षा को रोकना है। आपको बता दें कि महात्मा गांधी ने हिंदी को जन-जन की भाषा भी कहा था।

जॉर्ज ऑखेरू, प्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक ने लिखा है- किसी राष्ट्र की संस्कृति और पहचान को नष्ट करने का सुनिश्चित तरीका है , उसकी भाषा को हीन बना देना। जयप्रकाश नारायण ने लिखा था कि- मेरा सुनिश्चित मत है कि विदेशी भाषा अनिवार्य रहते हमारे शिक्षार्थियों में स्वाभिमान का विकास नहीं हो सकता। स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी को अनिवार्य रखना राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतिकूल है। सुप्रसिद्ध पत्रकार और लेखक डॉ वेदप्रताप वैदिक ने अपने एक लेख में लिखा कि- स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी के एकाधिकार शाही को छोड़कर अन्य विदेशी भाषाओं का सम्मान किया होता तो हमारा व्यापार कम से कम दस गुना अधिक होता, देशी भाषा को योग्य सम्मान मिला होता तो अपना देश सही मायने में एक आधुनिक, शक्तिशाली, समृद्ध और सही-सही लोकशाही राष्ट्र बना रहता और आजतक जो नुकसान हुआ उससे कई गुना कम नुकसान हुआ होता। 

संस्कृति के मूल मूल्यों की पहचान कराती है हिंदी :

हिंदी दिवस के मौके पर, हमें यह याद दिलाना चाहिए कि हमारी भाषा हमारी संस्कृति, गाथाएं, और इतिहास का प्रतीक है। हिंदी का सही ज्ञान हमें हमारे देश की धरोहर को समझने में मदद करता है और हमारे बच्चों को हमारे संस्कृति के मूल मूल्यों को सीखने में मदद करता है।

मातृभाषा में हो शिक्षा : जन्म भाषा में शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक नागरिक का जन्म सिद्ध अधिकार है।नवीनतम शोध में पाया गया है कि जिस भाषा में मां गर्भकाल में गर्भस्थ शिशु से बात करती है, जिस भाषा में बच्चा सोचता है, जिस भाषा में सपने देखता है , जिस भाषा में वह जन्म से संवाद करना सीखता है, यदि उसी भाषा में शैशव और किशोर अवस्था में बच्चे की शिक्षा हो तो उसका मानसिक विकास इतना अच्छा होता है कि वह उच्च शिक्षा के सभी विषय ज्यादा अच्छी तरह से ग्रहण करने में सक्षम होता है। तब उसे ज्ञान को रटना नहीं होता है। वह सही मायने में ज्ञान को ग्रहण करता है जो कि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है। 

मातृभाषा से भिन्न भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने पर बच्चों की अधिकांश ऊर्जा और समय उस भाषा को सीखने में व्यय होता है। समय और शक्ति के अभाव में वह अन्य विषयों में स्वाभाविक रुचि नहीं ले पाता, परिणामस्वरूप थकान और तनाव हो जाता है, उसका स्वाभाविक और सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता है। इसलिए आज मातृभाषा में शिक्षा सबसे पहली आवश्यकता है।

किसी भी भाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में चयन के तीन आधार होते हैं /

1. जिस भाषा में विद्यार्थी सरलता से ज्ञान ग्रहण कर सके।

2. जिस भाषा में विद्यार्थी बारीकी के साथ वस्तु के यथार्थ स्वरूप का चिंतन कर सके।

3. जिस भाषा में विद्यार्थी अपने विचारों को सरलता से अभिव्यक्त कर सके।

हमें सोचना है कि यह तो केवल मातृभाषा में ही संभव है। विदेशी भाषा तो बिल्कुल भी इन मापदंडों पर खरी नहीं उतर सकती है।

भाषा की समृद्धता : हमारी राजभाषा हिंदी 770000 स्वयं के शब्दों से समृद्ध है। हिंदी सिर्फ़ एक भाषा नहीं है; यह एक सांस्कृतिक खजाना है जो हमें हमारी जड़ों और परंपराओं से जोड़ता है। यह एक ऐसी भाषा है जो सदियों से विकसित हुई है और जिसने विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों के प्रभावों को आत्मसात किया है। यह एक ऐसी भाषा है जिसकी साहित्यिक विरासत समृद्ध और विविध है, जो प्राचीन महाकाव्यों और भक्ति कविताओं से लेकर आधुनिक उपन्यासों और उत्तर आधुनिक लेखन तक फैली हुई है। यह एक ऐसी भाषा है जो भारतीय लोगों के इतिहास, संस्कृति और मूल्यों और अन्य सभ्यताओं के साथ उनके संबंधों को दर्शाती है।

अंग्रेजी भाषा का विरोध क्यों?- अंग्रेजी या किसी भी भाषा का विरोध नहीं है पर वह शिक्षा का माध्यम न होकर एक विषय के रूप में पढ़ाई जानी चाहिए। जो भाषा मात्र तीन महीने में सीखी जा सकती है। उसके लिए बच्चे का बचपन छीन लेना कहाँ की बुद्धिमानी है। उसके लिए इतना बड़ा और इतना महंगा तंत्र खड़ा करने का अपव्यय क्यों? अपनी भाषा और संस्कृति की कीमत पर अंग्रेजी का विकास क्यों? 

एक आधुनिक समृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्र की उन्नति में मातृभाषा की क्या भूमिका हो सकती है इसकी जानकारी हमारे नेताओं को आज भी नहीं है। उनकी अज्ञानता के कारण स्वतंत्रता के 76 वर्ष वर्ष उपरांत भी हमारी शिक्षण पद्धति, नौकरशाही , संचार माध्यम, न्यायालय और संसद में अंग्रेजी का ही वर्चस्व है। अंग्रेजी के वर्चस्व से देश का प्रचंड नुकसान हुआ है

 परायी भाषा के पीछे घूमते रहने से देश महाशक्ति कैसे बन सकता है? आज तक जितने भी राष्ट्र महाशक्ति बने हैं वे मातृभाषा के द्वार खोले हुए हैं, उन्होंने एक नहीं अपितु अनेक विदेशी भाषाओं की खिड़कियां खोली हैं। 

यह एक भ्रांत धारणा है कि अंग्रेजी भाषा के बिना तकनीकी विषय नहीं पढ़ाए जा सकते। चीन, जर्मनी , फ्रांस, सोवियत रूस में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी न होकर वहां की मातृभाषाएं हैं। लेकिन तकनीकी विकास में किसी तरह से इंग्लैंड, अमेरिका से कम नहीं हैं। विश्व के ७७ देश कभी अंग्रजों के गुलाम थे, आज वे सभी स्वतंत्र हो चुके हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत सभी ने शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को नहीं अपनी मातृभाषा को ही अपनाया है। तो क्या अंग्रेजी के अभाव में इन देशों में सब बेरोजगार ही रह जाते हैं?

जिस देश की युवा आबादी में विदेशी भाषा के माध्यम से किसी का नौकर हो जाने की ख्वाहिश हो, अपना व्यवसाय करके मालिक बनने की चाहत ही न हो, उद्यमशीलता ही न हो, तो क्या वह देश कभी वास्तविक विकास कर सकता है?

आज विश्व के सभी देश अपने देश में अंग्रेजी के प्रभाव कम करने के लिए प्रयत्नशील हैं लेकिन हम हैं अंग्रेजी के दीवाने, पाश्चात्य सभ्यता के नशे में डूबे हुए हैं, इस भाषा के साथ आने वाली गुलामी को नहीं देख पा रहे हैं और जानबूझकर इस भाषा के प्रभाव को बढ़ाते ही चले जा रहे हैं। 

यदि आपके बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ रहे हैं और स्कूल में आपस में हिंदी, मराठी, कन्नड़ में बातचीत करने पर उन्हें दंडित किया जाता है तो ऐसे दंड का जोरदार विरोध होना चाहिए। जब तक अगली पीढ़ी को शिक्षण संवाद में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से पढ़ाते रहेंगे, यह समस्या खत्म न होगी। हिंदी और अन्य प्रांतीय भाषाओं को विकृत करने में अंग्रेजी का निर्णायक योगदान रहा है।

जीवन निर्वाह नहीं, निर्माण हो शिक्षा का उद्देश्य :-

नई शिक्षा नीति में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने शिक्षा का ध्येय बताया कि- हित का सृजन और अहित का विसर्जन यही शिक्षा का ध्येय है, शिक्षा का उद्देश्य जीवन निर्वाह नहीं, जीवन निर्माण है। विद्या अर्थकारी नहीं, पर्मार्थकारी होना चाहिए। शिक्षा का कार्य संस्कारों के संरक्षण के साथ भविष्य का विकास करना है। ज्ञान भाषात्मक नहीं, भावनात्मक होना चाहिए।

हिंदी राष्ट्र की रीढ़ है : हिंदी हमारे राष्ट्र की रीढ़ है। हर नागरिक को अपनी दुकान नाम हिंदीं या मातृभाषा में लिखना चाहिए। अंकों के स्वरूप भी भारतीय हो। प्रत्येक कार्यालयों में हिंदी भाषा में ही कामकाज हो। संवाद भी हिंदी भाषा में हो।हिंदी एक भाषा से कहीं बढ़कर है; यह भारत की समृद्ध और विविध संस्कृति की जीवंत अभिव्यक्ति है। यह एक ऐसा पुल है जो अतीत और वर्तमान, स्थानीय और वैश्विक, प्राचीन और आधुनिक को जोड़ता है।

हिंदी न केवल एक राष्ट्रीय भाषा है, बल्कि एक रचनात्मक भाषा भी है जो लोगों को अपने विचारों, भावनाओं और सपनों को व्यक्त करने के लिए प्रेरित करती है। हिंदी भारत की भाषा है और दुनिया की भाषा है।

हिन्दी जन -जन की भाषा :-

नई शिक्षा का माध्यम हिन्दी बना दिया जाय तो देश में हिंदी को नए आयाम स्थापित करते देर नहीं लगेगी। हिन्दी के प्रचार प्रसार में सरकारी व निजी शिक्षा संस्थाओं, गैर सरकारी संगठनों तथा आम जनता का सहयोग अपेक्षित होगा। हिन्दी दिवस मनाने से राष्ट्रभाषा संवृद्ध होगी। हिन्दी जन जन की भाषा बनेगी। और हिन्दी को अपना स्थान मिल सकेगा। देश में राष्ट्रीय भावना का संचार होगा। और देश निश्चित दिशा की ओर अग्रसर होगा।परन्तु देखने में आता है कि हर साल सितम्बर का महीना हिन्दी के नाम होता है और बाकि के 11 महीने अंग्रेजी को समर्पित। ऐसे में हिन्दी को जनभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित किये जाने की जो कवायद है, वह आयोजनों तक ही रह गई है। स्वतंत्र राष्ट्र में राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान और राष्ट्रीय वेश तो प्रतीकात्मक रूप से राष्ट्र की पहचान हैं। वास्तव में राष्ट्रभाषा ही राष्ट्र की धमनियों में संचारित होने वाली राष्ट्रीयता की जीवंत धारा, रुधिर धारा है। राष्ट्रभाषा के बिना जन-जन का न तो पारस्परिक सम्पर्क संभव है और न देशवासियों में एकता की भावना ही पनप सकती है। विदेशी भाषा के माध्यम से स्वदेशी भावना का प्रचार आकाश कुसुम सूंघने का प्रयास करना है। 

हिंदी के महत्व को समझकर हमें इसे बचाने और बढ़ावा देने का प्रतिबद्ध रहना चाहिए. हमें विद्यालयों, कार्यालयों, न्यायालयों और समाज में हिंदी का उचित प्रयोग करना चाहिए ताकि यह भाषा हमें हमेशा जोड़े रहे और हमारी राष्ट्रीय भाषा के रूप में आगे बढ़ सके.इसी तरह, हिंदी दिवस हमें हमारे देश के सांस्कृतिक धरोहर के प्रति समर्पित और जागरूक बनाता है, और हमें यह याद दिलाता है कि हमारी मातृभाषा हमारी गर्व और पहचान का प्रतीक है।

(लेखक प्रखर वाणी के धनी और संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य हैं। वर्तमान में मंडावरा जिला,ललितपुर में चातुर्मासरत हैं)

प्रेषक 

-डॉ. सुनील जैन संचय

ललितपुर उत्तर प्रदेश

9793821108

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