होशपूर्वक जीवन: जैन धर्म की शुद्धता और अहिंसा का मार्ग
साधना जैन धर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा
मुनि महात्मानंद
जैन धर्म की परंपराएं और सिद्धांत मानव जीवन को शुद्ध और संयमित बनाने पर केंद्रित हैं। भगवान महावीर ने अहिंसा और शुद्धता के साथ जीवन जीने का मार्ग दिखाया हैं, जिसे जैन धर्मावलंबी प्रतिदिन के जीवन में अपनाने का प्रयास करते हैं। सामायिक-प्रतिक्रमण, जैन साधना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जिसमें व्यक्ति अपने विचारों, वचनों और कर्मों की समीक्षा करता हैं और आत्मा की शुद्धि का प्रयास करता हैं। इस साधना के दौरान, व्यक्ति को हर गतिविधि को होशपूर्वक करने की सलाह दी जाती हैं, यहां तक कि छींकने जैसी स्वाभाविक क्रियाओं को भी नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता हैं।
जैन परंपरा में छींक को बेहोशी की निशानी माना जाता हैं, विशेष रूप से प्रतिक्रमण के समय। छींकने के पीछे की प्रक्रिया अनियंत्रित होती हैं, जो ध्यान और जागरूकता की कमी को दर्शाती हैं। जैन साधना में व्यक्ति को हर क्षण होशपूर्वक जीने की प्रेरणा दी जाती हैं ताकि वह अपने कर्मों और विचारों पर पूर्ण नियंत्रण रख सके। इसलिए, प्रतिक्रमण के दौरान छींकने से बचने का उद्देश्य यह हैं कि साधक पूरी तरह से अपने ध्यान में स्थिर रहे और उसकी साधना में कोई व्यवधान न हो। यही कारण है कि खाना बनाते अथवा खाते समय भी छींकने को अनुचित माना गया है, क्योंकि यह ध्यान की कमी का संकेत हैं।
जैन धर्म में भोजन को भी बहुत महत्वपूर्ण और पवित्र माना जाता हैं। खाना बनाते समय रसोई में पूरी शुद्धता और संयम बनाए रखना आवश्यक हैं, क्योंकि भोजन केवल शारीरिक पोषण का साधन नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि का माध्यम भी है। छींकने से न केवल स्वच्छता भंग होती हैं, बल्कि यह ध्यान और विवेक में कमी का संकेत भी होता है, जो जैन धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
इस प्रकार, जैन धर्मावलंबी अपने जीवन को शुद्ध और जागरूकता के साथ जीने का प्रयास करते हैं। उनका मानना है कि बिना होशपूर्वक जीने वाला व्यक्ति अहिंसा का पालन नहीं कर सकता, क्योंकि अहिंसा केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक स्तर पर भी होनी चाहिए। जीवन की हर छोटी-बड़ी क्रिया को होशपूर्वक करने का यही संदेश भगवान महावीर ने दिया था, जिसे जैन धर्मावलंबी अपनाने का प्रयास करते हैं।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें