हम सच्चे हैं या नहीं ? पहचानें !! -
ईमानदार होना ही सच्चा होना है
आगमवेत्ता साध्वी वैभव श्रीजी 'आत्मा'
ऐसा कभी कभी होता है कि हम अपने आप के साथ पूरे ईमानदार होते हैं। ईमानदार होना ही सच्चा होना है। सच्चे होने का मतलब मात्र सच बोलने से ही नहीं है। वस्तुस्थिति का यथार्थ चित्रण करने की क्षमता भी सत्य होने की निशानी नहीं है। ना ही सत्य होने का मतलब कोई स्पष्ट वक्ता या उपदेशक हो जाना है। हम सच्चे व ईमानदार तब होते हैं, जब हमारे भीतर और हमारे द्वारा संपादित हो रहे प्रत्येक क्रियाकलाप में एकलयता हो। एकतानता हो। अगर हमारा होनापन हमारे क्रिया व्यवहार में पूर्णता से मौजूद नहीं है तो
सच्चे कैसे हो सकते हैं ?
अक्सर हम वैचारिक धरातल पर बहुत भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी जी रहे होते हैं। शरीर तो अपनी नीयत सीमाओं में क्रम से गति करता जाता है किन्तु मन बेतरतीब हो जाता है। कभी कुछ तो कभी कुछ सोचे चला कुछ जाता है। उसकी सोच बेलगाम घोड़े की भाँति हो जाती है, जो अपने सवार को भी गिरा जाती है। ऐसे में जो ईमानदार, सत्यनिष्ठ इंसान है, वह इस भाग-दौड़ भरे मन की ऊहापोह को, उसकी जटिल कार्यप्रणाली को समझता जाता है किन्तु अपने खण्डित विचारों को सत्य अनुभव कहने या प्रमाणित करने की चेष्टा कभी नहीं वह जानता है कि सत्य वह है, जो विचारों के प्रभावों से मुक्त नित्य शुद्ध अस्तित्व का अनुभव है। जो वैचारिक निंद्रा है, वह पूषा ही है, मिथ्या ही है। वह कल्पनाओं से व तमन्नाओं से पैदा हुई धूल-मिट्टी मात्र है, जो इंसान के विवेक चक्षु को उघाड़ने में बाधक बनती जाती है। अपने विचारों की आंधी को जो बिना शोरगुल मचाएदेखने का धीरज रखता है, वही सत्य का साक्षात् अनुभव प्राप्त करता है। जब तक भावों की श्रृंखला विचारों से आक्रान्त है, तब तक हमारे भाव सत्य नहीं है क्योंकि विचार सदा ही शंका व कांक्षा के दोषों से युक्त पाए जाते हैं।
साधु, श्रमण वह है जिसके भाव सत्य होते हैं, मिथ्या लगावों के उहापोह से ग्रस्त नहीं होते। भाव तभी सत्य होते हैं, जब हम उन्हें आकर्षण- विकर्षण के बक्रव्यूह से मुक्त होकर देखा पाएँ। जब तक आकर्षण विकर्षण यानि रति व अरति की आंधियाँ भीतर में चल रही है, तब तक मन बोझिल व दुविधाग्रस्त ही बना रहेगा। वह कुछ करता हुआ, कुछ करने लगेगा। जो कहना है, वो नहीं कहेगा। भावों में शंका, आकांक्षा, हसरतें व दिवास्वप्नों का जंजाल उन्हें मिथ्या बनाता है। भाव सत्य होने का तात्पर्य यथार्थ का आनंदमय अनुभव होना है। जब हम मन की ऊहापोह से, आसक्ति के चक्रव्यूह से परे तत्वार्थ को जानते और जीते हैं, तब ही हमारे भाव सत्य होते हैं। यथार्थ को जीना भाव सत्य है भाव सत्य होने के साथ ही करण सत्य होना भी बेहद महत्वपूर्ण है।
करण सत्य का अर्थ है कि किसी भी क्रिया-कलाप को संपादित करने में, जो साधन अपनाए जा रहे हैं, जैसे स्वयं कार्य करना, अथवा किसी अन्य को आदेश व निर्देश देकर कार्य कराना अथवा जहाँ, जो घटनाएँ घट रही है उनका अनुज्ञान करना, ध्यान रखना, पंचायती में रस लेना इत्यादि ये सब करण के प्रकार हैं, कार्य करने के तरीके हैं। जब एक साधक अपनी आत्म साधना के लिए अभ्युत्थित हुआ है, तब उसे भावों में सत्यता को आराधना है, साथ ही करण में सच्चाई लानी है।
के करण अर्थात् क्रिया करने के तरीके, जो जैन सूत्रों में तीन प्रकार के बताए गए हैं ।
1. करना 2 कराना 3 करते हुए अनुज्ञान करना
इन तीनों को सत्यमय जीना बेहद जरूरी है। हमने देखा है कई साधक व साधु स्वयं को श्रेष्ठ दशनि के लिए खुद को प्रगट तौर पर तो कई प्रकार की क्रियाओं से बचा कर रख लेते हैं किन्तु अन्य अनेकों को उन्हीं क्रियाओं को करने के लिए प्रेरित करते रहते हैं, जिन्हें वे अपनी धर्म मर्यादा अथवा प्रतिष्ठा के माकूल नहीं पाते। जैसे, धर्म संघों व संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी नहीं करते हुए जो भागीदारी कर रहे हैं उन्हें परस्पर लड़ाना, उत्तेजित करना या सलाह-मशविरा देते रहना, राजनीति कराना, अन्य साधुओं पर टीका-टिप्पणी देकर धर्म संघों में भेद डलवाना आदि इस प्रकार अनेकों को उत्साह देकर अपना मतलब निकालना, ऐसा राजनीतिकरण करने •बाला साधु बेहद खतरनाक होता है। वह करण सत्य को उपलब्ध नहीं होता।
अब तीसरी तरह के लोग और हैं, जो सीधे राजनीति में उतरते नहीं, राजनीति हित आदेश-निर्देश भी देते नहीं किन्तु जो राजनीति करने व कराने में लिप्त हैं, उनकी जानकारियाँ रखते हैं, उनकी निन्दा-चुगली में रस लेते हैं, उन पर टीका-टिप्पणी करते रहते हैं। इस प्रकार वे सीधे न करके उल्टे तरीकों से दुष्कृत्यों का अनुज्ञान करते हुए अपने करण को मिथ्या बना डालते हैं। उनकी कार्यक्षमताएँ असंगत होने लगती है, अब वे उन्मागंगामी बन जाते हैं। इस प्रकार हम देखें कि भाव सत्य अर्थात् विवेक का प्रकाश नहीं रह पाया तो करण भी सत्य नहीं रह पाएगा। हमारे मुख से निकला एक भी रायजनक वाक्य, टीका-टिप्पणी हमें पुनः संसार के दलदल में धँसा देगा, अतः चेतने की सतत् आवश्यकता है। के
भाव सत्य व करण सत्य के बाद एक समण को योग सत्य वाला होने की बात सूत्रों में आती है। योग अर्थात् मन वचन व काया का जोड़ इन तीनों के द्वारा हम सतत् क्रियाएँ करते हैं। हमारे ये योग सत्य तभी होते हैं, जब तीनों एकलय होकर स्पष्टता के साथ जीते हैं। जब हमारा सोच, वचन और आधार तीनों एकदिशागामी हो, किसी विषय-वस्तु में समग्र रूप से उपस्थित हो, तब ही हम योगों से सत्य को जीने वाले होते हैं। इस प्रकार हम सच्चे हैं या नहीं? इसकी पहचान के लिए हमें इन तीनों प्रकार से स्वयं को तोलना -परखना होगा, तभी समझ आवेगा कि हमारा स्तर क्या है ?
सत्य को जीना साधना का इष्ट हो, मात्र सत्य बोलना ही नहीं। सत्य जीवन जीने की भावना आत्मज्ञानी श्री विराट गुरूजी के शब्दों में
गुरुजी में जीवन सत्य जीऊँ
कृपा रहे आशीर्वचनों का अमृत रोज पीऊँ,
गुरूजी में जीवन सत्य जी......
जो अन्दर-बाहर भी वैसा कथनी-करनी एक
•बिना कपट के सरल वचन से,
दूं स्वभाव को टेक सत्य वचन भी मीठा बोलूं,
अगर जरूरत के झूठे वादे साक्षी लेखन करे चरित ना छेक रहूँ ,
निडर बिनयी समकित मैं, व्यर्थ न गप्प कहूँ कृपा रहे,
आशीर्वचनों का अमृत रोज पीऊं गुरुजी मैं जीवन सत्य जीऊँ ।
जय हो
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