जैन धर्म और व्रत- आचार्य श्री धर्मधुरंधर सूरीस्वरजी म. सा.

                                                                  जैन धर्म और व्रत 
आचार्य श्री धर्मधुरंधर सूरीस्वरजी म. सा.
दोनों प्रकार के धर्मों का उद्देश्य 
हां,दोनों प्रकार के धर्मों का उद्देश्य एक ही हैं-सर्वथा कर्मों का क्षय,आत्मशुद्धि,वीतरागता,स्वस्वरूप में रमणता. किसी भी प्रकार की एंद्रेविक विश्वेच्छा,सांसारिक लिप्सा,स्वार्थमूर्ति,प्रलोभन यह धर्म का उद्देश्य नहीं हैं. हां,यह सही हैं कि दोनों प्रकार के धर्मों के पालन की रीति,नीति भिन्न-भिन्न हैं. 
अनगारधर्म महाव्रत प्राचीन हैं तो सागराधर्म अणुव्रतप्रधान हैं. सातों प्रकार के व्यसनों का त्याग और मारगाणुसारिता के 35 गुणों का पालन तो गृहस्थधर्म-सागारधर्म की भूमिका है,नींव हैं. 
महाव्रत और अणुव्रत 
परमात्मा दृविचि धर्म मैं से प्रथम महाव्रत धर्म का उपदेश देतें हैं. तत्पश्चात अणुव्रतधर्म का. अणु यानि बाद में अथवा छोटे; महाव्रतों के बाद उपदिष्ट होने के कारण श्रावकधर्म के व्रत अणुव्रत कहलाते हैं;अथवा महाव्रत यानि बड़े बड़े व्रत और अणु यानि छोटे छोटे व्रत. महाव्रतों की अपेक्षा से छोटे होने के कारण श्रावकधर्म के व्रत  कहलाते हैं और अणुव्रतों की अपेक्षा बड़े होने के कारन श्रमण  महाव्रत कहलाते हैं. 
हां श्रमणधर्म प्रमुख हैं 
उपदिष्ट दोनों प्रकार के धर्मों में से अनगारधर्म प्रमुख हैं. जैनाचार्यों का स्पष्ट उद्दोष हैं कि श्रामणय-श्रमण जीवन ही गृहस्थ का लक्ष्य होना चाहिए; अतः एवं प्रतिदिन विचरने योग्य तीन मनोरथो के रूप में गृहस्थ-श्रावक यही सोचता हैं-
1) कब में अल्प या बहुत परिग्रह का त्याग करूंगा?
2) कब में मुंडित होकर आगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होऊंगा?
3) कब मैं अपश्चिम मारणांतिक संलेखना की आराधना से युक्ता होकर भक्तपान का परित्याग कर अनशन कर मृत्यु की आकांक्षा न करता हुआ विचरण करूंगा?
व्रत की व्याख्या 
दोनों यानि श्रमणधर्म और श्रावकधर्म विरति-व्रतप्रधान व्यवस्थाएं हैं. व्रत यानि विशिस्ट आचार पालन का संकल्प;स्वयं के लिए स्वयं के द्वारा कृत्य अकृत्य मर्यादाओं का निर्धारण. विरति यानि सावद्धप्रवर्तियों से मन,वचन और काया को निवृत करना. व्रत और विरति;दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं. 
प्रस्तुति-दीपक आर जैन 
  

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