जैन धर्म और व्रत -आचार्य श्री धर्मधुरंधर सूरीस्वरजी म. सा



धर्म-कर्म 
जैन धर्म और व्रत
आचार्य श्री धर्मधुरंधर सूरीस्वरजी म. सा.
जैन धर्म अहिंसा,त्याग,टप,संयम,औए व्रतप्रधान परंपरा हैं. यहाँ तक कि स्वयं तीर्थंकर परमात्मा भी जब दीक्षा गृहण करते हैं तो उपस्थित देव देवियों,नर,नारियों के समक्ष सर्व सावद्धयोगों के त्याग के रूप में प्रत्याख्यान व्रत को स्वीकार करते हैं. सावद्धयोगों का त्याग यानि मन,वचन और काया से सभी प्राणातिपात   हिंसा,मृषावाद,झूठ,मैथुन,लोभ,क्रोध,मान,माया,मान,राग आदि विकारों को जाने अंजाने न करने का संकल्प.
हां,त्याग,टप,सयमादिमय के पश्चात जब वे ज्ञानावर्णीय,दर्शनावरणिय,मोहनिय और अंतरायस्वरुप घाती कर्मों का समूल क्षय कर देते हैं;केवलज्ञान  केवलदर्शन की शक्ति को आत्मा में सर्वाशत;उजागृत कर चुके होते हैं.;जब तीर्थंकर नामकर्म उनके उदय मैं आ चुका होता हैं,चारों निकायों के देवता मिलकर समवसरण की रचना करते हैं और परमात्मा समवसरण मैं बिराजमान होकर प्रथम देशना देते हैं तब वे दो प्रकार के धर्म का उपदेश देते हैं-अनगारधर्म और सागराधर्म।
 अनगारधर्म यानि श्रमणधर्म-सर्वविरतिधर्म और सागराधर्म यानि देशविरतिधर्म-श्रावकधर्म.
सागराधर्म यानि गृह घर. घर में रहते हुए,गृहस्थ जीवन संबंधी व्यवहारों को निभाते हुए जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा उपदिष्टः सम्यकतत्वमूल बारह अणुव्रतों के पालन पूर्वक जो धर्मसाधना की जाए वह सागराधर्म कहलाता हैं.देशत:यानि अक्षत:विरति-व्रतों के पालन के कारण यही धर्म देशविरति धर्म कहलाता हैं.  सर्व यानि सर्वथा-सभी रीति से सावद्ध योगों-मन,वचन और काया से आरंभ सरंभ,समारंभ प्रधान सभी पापवृतियों,प्रवृत्तियों को न करने,न करवाने और न ही अनुमोदना करते हुए पंचमहाव्रत स्वरुप धर्म की जो साधना की जाती हैं वह अनगारधर्म कहलाता हैं. सर्वथा यानि पूर्णस्वरूप से विरति-व्रतों के पालन के कारण यह धर्म सर्वविरति धर्म कहलाता हैं.
गृहस्थ और साधु 
सागार धर्म का पालन करनेवाला होने के कारण गृहस्थ सागारी;अणुव्रतों को ग्रहण करने और पालन करनेवाला होने के कारण अणुव्रती;देशत:व्रतों,देशत:संयम को ग्रहण  करने और पालन करनेवाला होने के कारण देशविरत,विरताविरत,सयंतासयंत कहलाता हैं;श्रमणों की उपासना करनेवाला होने के कारण गृहस्थ श्रमणोपासक;श्रद्धा की प्रमुखता के कारण वह श्राद्ध;तो श्रमणों से श्रृद्धापूर्वक निग्रंथप्रवचन-जिनवाणी सुनने के कारण वह श्रावक कहलाता हैं.जबकि बाहरी और आतंरिक ग्रंथियों के त्याग के कारण साधु निग्रंथ; सर्वविरति धर्म का पालन करनेवाला होने के कारण सर्वविरति,महाव्रती,आठों प्रकार के कर्मों के भेदन-छेदन के कारण भिक्षुक;अनागार धर्म का पालन करनेवाला होने के कारण वह अनागार;और आत्महित के लिए सतत श्रम करते रहने के कारण वह साधु श्रमण कहलाता हैं.             
(क्रमश)
प्रस्तुति-दीपक आर जैन 
        

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