संस्कारों और सिद्धांतों के निर्माता श्री आदिनाथ भगवान
जन्म व दीक्षा कल्याणक पर्व पर विशेष
संकलन :-संदीप दसेड़ा /जावरा
चेत्र वदी अष्टमी का मंगलकारी दिन है .आज मानवीय सभ्यता, संस्कारों और सिद्धांतों के निर्माता, प्रथम तीर्थंकर, श्री आदिनाथ भगवान का जन्म व दीक्षा कल्याणक पर्व है.
•अरिहंत आदिनाथ के निरंतर 400 उपवास की सुदीर्घ तप साधना की स्मृति में आज से वर्षीतप का शुभारंभ किया जाता है.
•प्रभु के उपवास का पच्चक्खाण नहीं था. वे प्रतिदिन भिक्षा के लिए निकलते थे, लेकिन शुध्द-उचित आहार न मिलने से वे खाली हाथों वापस लौटते थे. अदीन मनोवृति के धनी थे प्रभु !
•सदैव चित्त के स्वस्थ-प्रसन्न भाव लेकर वे भिक्षाचर्या के लिए रवाना होते थे और आहार न मिलने पर भी उन्हीं श्रेष्ठ भावों के साथ वापस आते थे. फिर उपवास का पच्चक्खाण कर लेते थे. ऐसा करते-करते 400 दिन बीत गये.
•कर्मों ने खूब कोशिश की, पर ऋषभ प्रभु पराजित नहीं हुये. अंततः श्रेयांश महाराजा के करकमलों से हस्तिनापुर नगर में प्रभु को आहार मिला और 400 उपवास का मंगलमय पारणा हुआ.
वर्षीतप की आराधना कैसे शुरू हुई.
प्रथम युगादिदेव परमात्मा श्री ऋषभदेव प्रभु (आदिनाथ) का जन्म क्रोडा-क्रोड़ी वर्ष पूर्व अवसर्पिणी काल यानी तीसरे आरे के समय में हुआ था ! प्रभु की आयु ८४ लाख वर्ष पूर्व, देह की ऊंचाई ५०० धनुष थी, एवं वर्ण स्वर्णमयी था. संसार के समग्र प्राणियों एवं मानव को सभी प्रकार का ज्ञान, जीवन जीने की कला, सही-गलत कार्य के द्वारा कर्मो का बंधन एवं उससे मुक्ति के उपाय भी प्रभु ने ही मार्गदर्शित किये थे। स्वयं प्रभु के द्वारा पिछले जन्म में एक बैल का मुँह बांधने की सलाह दी थी क्योकिं वह बैल खेतों की फसल को खा रहा था, खेत के मालिक द्वारा बैल को निर्दयता से मारता देख, प्रभु ने करुणावश यह सलाह दे दी कि इससे बैल को मार भी न पड़ेगी, और किसान को फसल का नुकसान भी नही होगा !
12 घंटे तक बैल का मुह बांधा रहा.बैल 360 पलोपल तक तडपता रहा, उसे वेदना हुई, प्रभु के8 करुणामय भाव होते हुए.भी अंतरायकर्म का बंध हुआ, इसी 12 घंटे कर्म के निवारणार्थ प्रभुजी को 400 दिन तक भिक्षा में आहार नही मिला..उपवास से रहना पड़ा.
यही से तप के द्वारा. कर्म-बंधन की मुक्ति का विधान शुरू हुआ.
युगादिदेव दादा श्री आदिनाथ भगवान दीक्षा पशचात निर्जल व् निराहार विचरण करते हुए 400 दिनों के बाद वैशाख शुक्ला ३ के शुभ दिन हस्तीनापुर की पावन भूमि पर पधारे. प्रजा दर्शनाथ उमड़ पड़ी। कोई प्रभु को हाथी तो कोई सोना भेट कर रहा हे। लेकिन प्रभु को तो पारने में काल्पिक आहार चाहिए था। प्रजा इस बात से अनजान थी कोई समझ नहीं पा रहा था.तब राजकुमार श्री श्रेयांसकुमार कुमार को अपने प्रपितामह के दर्शन पाते ही जाती - समरण ज्ञान हुवा जिस से आहार देने की विधि को जानकर इक्षु रस को ग्रहण करने के लिए भक्ति भाव पूर्वक प्रभु से आग्रह करने लगा। प्रभु ने काल्पिक आहार समजकर श्री श्रेयांस कुमार के हाथो पारना किया। देवदुंदुभिया बजने लगी। जनता में हर्ष का पार ना रहा। उसी दिन से यहाँ से वर्षीतप के पारने की प्रथा चालू हुई.
भगवान के इक्षु रस से पारना होने के कारण उस दिन को पुरे शासन में अक्षय तृतिया (आखातीज) नाम प्रचलित हुआ.
श्री ऋषभदेव प्रभु के 13 भव हुए.पूर्व भव में प्रभु की आत्मा सर्वार्थसिद्धि नाम के विमान में थी, वहाँ 33 सागरोपम का आयुष्य पूर्ण करके वहाँ रहकर मतिज्ञान , श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के साथ नाभि कुलकर की देवी मरुदेवी माता की कुक्षी में जेठ वद 4 के दिन धन राशि और उत्तराषाढा नक्षत्र में मध्यरात्रि च्यवन हुआ.तब मरूदेवा माता ने 14 स्वप्न देखे. प्रभु माता के गर्भ में 9 माह 4 दिन रहे.फागुण वद 8 के दिन उत्तराषाढा नक्षत्र में मध्यरात्रि जन्म हुआ.56 दिक्ककुमारिकाओ ने आकर सूति कर्म किया.64 इन्द्रो ने मेरु पर्वत पर 1 करोड़ 60 लाख कलशों से जन्माभिषेक महोत्सव किया। प्रातः काले प्रभु के पिता ने जन्मोत्सव मनाया.
प्रभु की दायी जांघ पर ऋषभ का लंछन था.500 धनुष्य की काया थी। सुवर्ण वर्ण था। प्रभु 20 लाख पूर्व वर्ष कुमार अवस्था में रहे। प्रभु का इक्ष्वाकुवंश और कश्यप गोत्र था.प्रभु का लग्न सुमंगला और सुनंदा के साथ देवताओं-देवीओं ने आकर किया था । सुमंगला ने भरत - ब्राह्मी युगल को जन्म दिया। 49 पुत्र युगल ( 98 पुत्रो ) को जन्म दिया। सुनंदा ने बाहुबली और सुंदरी युगल को जन्म दिया। प्रभु को 100 पुत्र और 2 पुत्रियाँ थी। प्रभु विश्व के जीवों के सुख के लिये चित्रकाम , कुम्भकार , वार्धकि , वणकर आदि 100 कला शिखाई। पुरुष की 72 कला और स्त्री 64 कला शिखाई। ब्राह्मी को 18 लिपि का ज्ञान और सुंदरी को गणित ज्ञान सिखाया था.
प्रभु 1 वर्ष तक हरदिन 1 करोड़ 8 लाख सोनामहोर का दान देते है। प्रभु सुदर्शना नाम की शिबिका में बैठकर सिद्धार्थ वन में पधारते है.वंहा अशोकवृक्ष की नीचे 4 मुष्ठि लोच करते है.छठ्ठ का तप करके 83 लाख पूर्व वर्ष की पिछली उम्र फाल्गुन वद 8 के दिन उत्तरषाढा नक्षत्र में कच्छ महाकच्छ आदि 4000 के साथ दीक्षा लेते है। तब प्रभु को चौथा मनःपर्याव ज्ञान होता है.प्रभु को अंतराय कर्म के उदय के कारण दीक्षा के 13 माह 10 दिन के बाद हस्तिनापुर नगरी में श्रेयांस कुमार के हाथों इक्षुरस से प्रथम पारणा करते है। तब पंच दिव्य प्रगट होते है। साढ़े बारह करोड़ सोनामहोर की वृष्टि होती है.प्रभु दीक्षा के बाद 1000 वर्ष आर्य अनार्य देश में विचरण करते है.प्रमाद निंद्रा 1अहोरात्रि की। प्रभु विचरते विचरते विनिता नगरी के पुरीमताल उपनगर के शकटमुख उद्यान में अठ्ठम का तप करके वटवृक्ष की नीचे ध्यान में थे तब महा वद 11 के दिन उत्तरषाढा नक्षत्र में केवलज्ञान हुआ.लोकालोक के सर्व भवो को देखने और जाणने लगे.प्रभु 18 दोष से रहित हुए। 8 प्रातिहार्य और 34 अतिशय से युक्त हुए.तब देवोनो आकर समवसरण की रचना की। प्रभु समवसरण में मध्य सिंहासन पर अशोकवृक्ष की नीचे बैठकर सम्यक्त्व - पंच महाव्रत - 12 व्रत को समझाती 35 गुण से युक्त वाणी से देशना देते है। देशना सुनकर भरत के ऋषभसेन ( पुंडरीक ) आदि 500 पुत्र और 700 पौत्र दीक्षा लेते है। प्रभु को पुंडरीक स्वामी आदि 84 गणधर थे.
प्रभु विचरते विचरते अष्टापद पधारते है। वहाँ चतुर्दशभक्त ( 6 उपवास ) तप करते 10000 साधु के साथ पोष वद 13 के दिन मकर राशि और अभिजीत नक्षत्र में मोक्ष में जाते हैं.तब प्रभु का चारित्र पर्याय 1 लाख पूर्व वर्ष और 84 लाख पूर्व वर्ष का आयुष्य पूर्ण हुआ था। तब तीसरे आरे के 89 पखवाड़िये बाकी थे। प्रभु का शासन 50 लाख करोड़ सागरोपम तक चला था। प्रभु के शासन में अंतमुहूर्त के बाद मरुदेवी माता से मोक्ष मार्ग शुरु हुआ था वो असंख्यात युग पुरुष तक चला था। प्रभु के शासन में उत्कृष्ट अवगहना वाले 108 आत्मा एक साथे मोक्ष में गये वो अच्छेरा हुआ था। प्रभु के शासन में उत्तम पुरुष भरत चक्रवर्ती और भीमावलि रुद्र हुए.प्रभु के भक्त राजा भरत चक्रवर्ती थे। प्रभु की माता मोक्ष में गये और पिता नागकुमार देवलोक में गये है.
इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर,पहले राजा, युगादिदेव,आदिदेव, जगपति, जिनपति, असि, मसि कृषि के ज्ञाता,अयोध्या में जन्मे 500 धनुष की काया वाले जो पूर्व नव्वाणु बार शेत्रुंजय तीर्थ पर पधारे
इस अवसर्पिणी काल के कई महत्वपूर्ण प्रसंग प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ प्रभु के समय हुए.
इस अवसर्पिणी काल का…
– प्रथम केवलज्ञान
– प्रथम मोक्षगमन
– प्रथम समवसरण की रचना
– प्रथम बार चतुर्विध संघ की स्थापना
– प्रथम द्वादशांगी की रचना इत्यादि, ये सब प्रसंग प्रथम बार इसी भरत क्षेत्र की धरती पर घटित हुए.
( चैत्र वद आठम )
प्रथम तीर्थंकर श्री शत्रुंजय तीर्थाधिपति, श्री आदिश्वर भगवान का जन्म एवं दीक्षा कल्याण के दिन वर्षीतप प्रारंभ होता है
ॐ ह्रीं अर्हं श्री आदिनाथाय नमः
इस मंत्र का जाप
प्रभु के 400 उपवास की सुदीर्घ तपस्या की स्मृति में वर्षितप की साधना की मंगल शुरुआत की जाती है.
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