जैनों के लिए महापर्व है पर्युषण

दीपक आर.जैन 
भायंदर-भारत वैसे तो अनेकोनेक पर्व हैं इनमे कुछ ऐसे पर्व हैं जो भौतिकता की और आकर्षित करते हैं तो कुछ पर्व आत्म साधना और त्याग से जुड़े हुए है.ऐसा ही पर्व है पर्युषण महापर्व जिसका शुभारंभ सोमवार 26 अगस्त से हो रहा हैं.पूरे विश्व के लिए यह  एक उत्तम और उत्कृष्ट पर्व है, क्योंकि इसमें आत्मा की उपासना की जाती है.संपूर्ण संसार में यही एक ऐसा उत्सव या पर्व है जिसमें आराधक आत्मरत होकर धर्म आराधना करते हुए   अलौकिक, आध्यात्मिक आनंद के शिखर पर आरोहण करता हुआ मोक्षगामी होने का प्रयास करता है.
उपरोक्त विचार राष्ट्र संत आचार्य अशोकसागर सूरीश्वरजी म.सा.के शिष्य रत्न,प्रखर वक्ता पन्यास प्रवर श्री दिव्येशचंद्र सागर  म.सा. ने पर्व पर्युषण प्रारम्भ होने के उपलक्ष में कही.श्री पार्श्व प्रेम श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ के तत्वावधान में सफलतम चातुर्मास चल रहा हैं. पन्यास प्रवर ने कहा कि संपूर्ण जैन समाज के लिए यह महापर्व हैं.जैन धर्म में इसका सर्वाधिक महत्त्व हैं.संपूर्ण जैन समाज आठ दिनों तक चलने वाले इस महापर्व में लगभग हर जैन व्यक्ति जागृत एवं साधनारत हो  जाता है. 
पर्युषण महापर्व-कषाय शमन का पर्व है.यह पर्व 8 दिन तक मनाया जाता है जिसमें किसी के  भीतर में ताप, उत्ताप पैदा हो गया हो, किसी के प्रति द्वेष की भावना पैदा हो गई हो तो  उसको शांत करने का यह पर्व है.धर्म के 10 द्वार बताए हैं उसमें पहला द्वार है- क्षमा.क्षमा  यानी समता.उन्होंने कहा की क्षमा जीवन के लिए बहुत जरूरी है.जब तक जीवन में क्षमा नहीं, तब तक  व्यक्ति अध्यात्म के पथ पर नहीं बढ़ सकता.
 दिव्येशचंद्र सागर ने बताया की यह पर्व अध्यात्म की यात्रा का विलक्षण उदाहरण है जिसमें यह दोहराया जाता है- 'संपिक्खए  अप्पगमप्पएणं' अर्थात आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो.यह उद्घोष, यह स्वर सामने आते ही  आत्मा के अतिरिक्त दूसरे को देखने की बात ही समाप्त हो जाती है.'आत्मा के द्वारा आत्मा  को देखो'- यह उद्घोष इस बात का सूचक है कि आत्मा में बहुत सार है, उसे देखो और किसी  माध्यम से नहीं, केवल आत्मा के माध्यम से देखो.इस महान उद्देश्य के साथ केवल साधु-संत  ही नहीं बल्कि अनुयायी भी बड़ी तादाद में आत्म साधना में तत्पर होते हैं.
   भौतिकवादी परिवेश में अध्यात्म यात्रा के इस पथ पर जो नए-नए पथिक आगे बढ़ते हैं, उन्हें  इस पथ पर चलने में कठिनाई का अनुभव हो सकता है, कुछ बाधाएं भी सामने आ सकती हैं. यह उलझन जैसी लगती है, पर कोई उलझन नहीं है.यह उलझन तब तक ही प्रतीत होती है,जब तक कि अध्यात्म की यात्रा प्रारंभ नहीं होती.इस पथ पर जैसे-जैसे चरण आगे बढ़ते हैं,उलझन सुलझती चली जाती है.समाधान होता जाताहैं. जब हम अंतिम बिंदु पर पहुंचते तब वहां  समस्या ही नहीं रहती.सब स्पष्ट हो जाता है.एक अपूर्व परिवेश निर्मित हो जाता है और इस  पर्व को मनाने की सार्थकता सामने आ जाती है.
उन्होंने कहा की आज हर आदमी बाहर ही बाहर देखता है.जब किसी निमित्त से भीतर की यात्रा प्रारंभ होती है  और इस सच्चाई का एक कण, एक लव अनुभूति में आ जाता है कि सार सारा भीतर है, सुख  भीतर है, आनंद भीतर है, आनंद का सागर भीतर लहराता है, चैतन्य का विशाल समुद्र भीतर  उछल रहा है, शक्ति का अजस्र स्रोत भी भीतर है, अपार आनंद, अपार शक्ति, अपार सुख- ये  सब भीतर हैं, तब आत्मा अंतरात्मा बन जाती है.पर्युषण पर्व स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार का अलौकिक अवसर है. 
 मुनिराज तत्तवेषचन्द्र सागर ने कहा कि पर्युषण पर्व अंतरआत्मा की आराधना का पर्व है, आत्मशोधन का पर्व है, निद्रा त्यागने का पर्व  है.उन्होंने कहा की सचमुच में पर्युषण पर्व एक ऐसा सवेरा है, जो निद्रा से उठाकर जागृत अवस्था में ले जाता  हैऔर अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर ले जाता है. तो जरूरी है प्रमादरूपी नींद को  हटाकर हमे इन 8 दिनों विशेष तप, जप, स्वाध्याय की आराधना करते हुए अपने आपको सुवासित  करते हुए अंतरआत्मा में लीन हो जाएं जिससे हमारा जीवन सार्थक व सफल हो पाएगा. 


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