धर्म को धारण कर जो स्वीकार करे वही धर्म है :- मुनि निर्मोह सागर

सतसंगी के साथ समय बितायें

आष्टा :- धर्म को जो धारण करें स्वीकार करें वहीं धर्म है। वस्तु का स्वरूप  ही धर्म ही है। वास्तविक धर्म क्या है। संसार में जो दुख मिल रहा है वह  अज्ञानता के कारण मिल रहा है। सनासर समंदर से कैसे पार किया जाए यह सभी  आचार्यों ने हमें बताया है। रत्नत्रय की एकता ही मोक्ष मार्ग है। जो धर्म  में लग गया मानों वह मोक्ष तो प्राप्त करेगा निश्चित ही है। यह नहीं सोचे  हमें स्वर्ग ही जाना है इसके आगे भी कोई जगह है जो है मोक्ष।

उपरोक्त विचार मुनिश्री 108 निर्मोह सागर जी महाराज ने प्रवचन के दौरान कहीं। मुनिश्री ने  कहा कि थोड़ी सी परेशानी आती है और हम धर्म को छोड़ देते हैं। हमारी आस्था ही  हमें धर्म से जोड़ रखती है। अपने अंदर धारण करना पड़ेगा जब ही हम दृढ़ निश्चय  कर पाएंगे। अनंत काल से जो संसार भ्रमण हो रहा है वह अपनी मिथ्या मान्यताओं के कारण हो रहा है। नियम लेने से कभी डरना नहीं चाहिए। अपने अंदर  की दृढ़ता बनाए रखना चाहिए। भगवान की पूजन प्रतिदिन करना चाहिए। जो धर्म  हमें उत्तम सुख की ओर ले जाने वाला है उसकी शरण में हमें रहना चाहिए। पल पल  हम कर्मों का आश्रव करते रहते हैं। उसी का हमें प्रक्षेपण करते रहना  चाहिए। धर्म से हमेशा हमें जुड़े रहने चाहिए। धर्म के प्रति अपना स्वार्थ  बनाए रखना चाहिए। बाकी सब तो यहीं रखा रह जाता है कुछ काम नहीं आना है।  शरीर को सजाने में अपने जीवन को व्यर्थ न गवाएं। अपना विश्वास बना कर जिस  तरह आचार्य गुरुजी कहते हैं धर्म क्षेत्र में संतोष नहीं  होना चाहिए पर हमारी विपरीत स्थिति चल रही हैं। औपचारिकता न करें भावों का  कोई पता नहीं। ऐसी भक्ति नहीं करें। इस प्रकार करने से हमारा भव भ्रमण  नहीं रुकेगा। हमारा कल्याण का मार्ग प्रशस्त नही होगा। आचार्य भगवन की कृपा  दृष्टि आपके नगर पर हमेशा बनी रहती है उसका भरपूर लाभ ले सदुपयोग करें।  हमें अपने अंतरंग की आशक्ति को ही दूर करना है। जो भाव शून्य क्रिया होती  है वे फल नहीं देती। हम संसार को कैसे बड़ा रहे है। पंचेन्द्रिय क्रियाओं  में ही उलझ कर रह गए हैं। सत्संगति में हमेशा अपना समय बिताए

             

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