अंत समय में की जाने वाली विशिष्ट आराधना साधना का नाम है संथारा-


                  अंत समय में की जाने वाली विशिष्ट आराधना साधना का नाम है संथारा
                                                        आचार्य धर्म धुरंधरसूरीस्वरजी 
❝आणाए धम्मो❞ जिनेन्द्र परमात्मा की आज्ञा ही धर्म है; इस सत्य  को मानने वाला कोई भी जैन व्यक्ति संथारा-प्रथा का विरोध नहीं कर सकता, और विरोध में जुड़ना भी पसंद नहीं करेगा; क्योंकि संथारा स्वयं जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा आचरित और उपदिष्ट विधान है, अगणित मुनियों एवं श्रावकों द्वारा सुविहित अनुष्ठान है ।अंत समय में की जाने वाली विशिष्ट आराधना और साधना का नाम है संथारा । नश्वर देह, आहार, उपधि आदि जीवननिर्वाहोपयोगी सर्व संसाधनों के प्रति ममत्व और अपनत्व के सर्वथा त्याग पूर्वक संथारा किया जाता है । संथारा विधान के पर्यायवाची शब्द हैं--संलेखना, पंडित-मरण, समाधि-मरण, आदि । अहोरात्र में बोले जाने वाले कई-कई सूत्रों के पद साक्षी हैं कि  हम जिनेन्द्र परमात्मा से प्रार्थना के रूप में कितनी-कितनी बार समाधि-मरण की चाहना अभिव्यक्त करते हैं ।

संथारे का उपदेश क्यों ? परमात्मा ने जीवन जीने की तो व्यवस्था दी ही है मगर मृत्यु के समय के लिए भी व्यवस्था दी है; सुचिरं पि निरइयारं, विहरित्ता नाण-दंसण-चरित्ते । मरणे विराहइत्ता, अणंतसंसारिणो दिट्ठा ।। यानि बहुत लंबे काल तक भी सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की आराधना करने वाले व्यक्ति यदि अंत समय में इनकी विराधना करते हैं तो वे अनंत संसारी माने जाते हैं । सम्यग् दर्शन अर्थात् जिनोक्त तत्त्वों पर श्रद्धा; सम्यग् ज्ञान अर्थात् जिनोक्त तत्त्वों का बोध और सम्यक् चारित्र अर्थात् श्रद्धा और ज्ञान पूर्वक जिनोक्त आचार का निर्दोषरूप से पालन करना है.

संसार को क्षीण करना ही तो जैनत्व का लक्ष्य है; जिनोक्त साधना है । संसार अर्थात् जन्म-मरण के चक्रव्यूह में घूमते रहना हें.संथारे का विधान अर्थात् संसार से छूटकारा या जन्म-मरण के चक्र को कम करने की पद्धति पूर्ण जैन समाज चार-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकारूप विभागों में विभक्त है । परमात्मा ने इन चारों वर्गों को जीने के लिए जो व्यवस्था दी है उसमें प्रत्येक को प्रतिदिन भाने योग्य तीन-तीन मनोरथों का विधान भी है । तीनों मनोरथों में से तीसरा मनोरथ है--जीवन के अंत समय में राग और द्वेष के बिना संथारा-संलेखनापूर्वक मृत्यु का स्वीकार । मनोरथ यानि तीव्र इच्छा जैन समाज संथारे संबंधी विधान को बहुत ही सम्मानभरी निगाहों से देखता है जबकि आत्महत्या को जैन समाज तो क्या, सामान्य जन भी तिरस्कारभरी निगाहों से देखता है ।

संथारा वीरता है और आत्महत्या कायरता है, क्योंकि संथारा हर हालत में इहलौकिक या पारलौकिक सुख दुःख, जीवन मरण और कामभोगों की आशंसा के बिना सहजरूप से मृत्यु स्वीकार है तो आत्महत्या न जीने की इच्छा से, शीघ्र मरण की वांछा से और किसी भी प्रकार के क्लेश, संत्रास से संत्रस्त बने व्यक्ति का अपराधपद्धति से मृत्यु का वरण है, जीवन से पलायन है ।श्रावक, श्राविका समाज के लिए तो संथारा समकितमूल बारह अणुव्रतों के समान एक व्रत है इसीलिए तो श्रावक, श्राविकाएं प्रतिचतुर्दशी के दिन पाक्षिक प्रतिक्रमण करते हुए अतिचार सूत्र के अंतर्गत ❛संलेखना व्रत संबंधी पांच अतिचार❜ का भी अलावा-आलापक बोलते हैं और साधु साध्वियों के लिए तो हर क्षण पालते रहने योग्य पंचाचारों में से तपाचार का एक रूप है.

आत्महत्या की सोच साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका समाज के लिए महापाप है जबकि संथारे के लिए तो शुद्ध, बुद्ध, मुक्त तीर्थंकर भगवंतों के द्वारा प्रज्ञप्त एक निश्चित आगमिक विधान है जिसके स्वरूप का
वर्णन संथारा पयन्ना, मरणविभक्ति पयन्ना, भक्तप्रत्याख्यान पयन्ना, आतुरप्रत्याख्यान पयन्ना आदि अनेक आगम ग्रंथों में विशदता से पाया जाता है जबकि आत्महत्या के लिए कोई एक निश्चित विधान नहीं है । कोई आत्म-हत्या घातक विषादि-भक्षण या अन्यान्य किसी न किसी अस्त्र शस्त्र के स्वयं के ऊपर प्रयोग के रूप में करता है; तो कोई जल में डूब मरने, अग्नि में झंपापातादि के रूप में करता है; ऊंचाई से कूदने के रूप में, चलते हुए वाहनों के नीचे स्वयं को कुचलवाने के रूप में करता है; आदि । यानि किसी भी सोची समझी नई या पुरानी किसी भी पद्धति से आत्महत्या की जा सकती है ।

आत्महत्या भय, कुंठा, आवेश, रोग, शोक, मोह, विवशता, बेचैनी, निराशा, असफलता, उत्तेजना आदि किसी अत्यंत खराब स्थितिके दबाव में मृत्यु-वरण का एक नजदीकी मार्ग  है, जबकि संथारा मुक्ति का या अधिकाधिक कर्मक्षय का मार्ग है क्योंकि संथारे के अंतर्गत मूल क्रियाएं हैं--दोषविशुद्धि, सर्व जीवराशि से खमत-खामणा, सुकृत अनुमोदना, दुष्कृतगर्हा और चतुःशरण यानिअरिहंत, सिद्धात्मा, साधु और धर्म की शरणागति .

आत्महत्या बाल्यावस्था, किशोरावस्था, तरुणावस्था, युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था यानि किसी भी अवस्था में की जा सकती है,जबकि संथारा अंतिम अवस्था में ही ग्रहण किया जा सकता है. आत्महत्या के लिए किसी की उपस्थिति या आज्ञा की जरूरत ही नहीं है, जबकि संथारे के लिए गुरु की आज्ञा और उपस्थिति
अनिवार्य है.आत्महत्या प्रयाससाध्य दुःखमृत्यु है, जबकि संथारे में मृत्यु के लिए कोई प्रयास नहीं है; आत्मरमणता पूर्वक मृत्यु का सहज आत्महत्या का परिणाम दुर्गति है और संथारे का परिणास सद्गति है.

आत्महत्या का परिणाम जन्म-मरण की परंपरा की बढ़ोतरी है और संथारे का परिणाम जन्म-मरण की परंपरा का अंत या फिर जन्म-मरण की परंपरा को अल्प करना है ।संथारा आत्मसाधना का पर्व हें जिसे व्यक्ति अपने जीवन के कल्याण के लिए लेता हैं. 

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